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________________ - निशीथ भाष्य 4803 - बृहदावश्यक भाष्य 931 देश, काल एवं कार्य को बिना समझे समुचित प्रयत्न एवं उपाय से हीन किया जानेवाला कार्य, सुख-साध्य होने पर भी सिद्ध नहीं होता है। 162. मत बढ़ने दो! नक्खेणावि हु छिज्जइ, पासाए अभिनवुट्टितो रुक्खो । दुच्छेज्जो वड्ढेतो, सोच्चिय वत्थुस्स भेदाय ॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 3 पृ. 807] - निशीथ भाष्य 4804 - बृहदावश्यक 945 प्रासाद की दीवार में फूटनेवाला नया वृक्षांकुर प्रारंभ में नाखून से भी उखाड़ा जा सकता है, किन्तु वही बढ़ते-बढ़ते एक दिन कुल्हाड़ी से भी दुच्छेद्य हो जाता है; और अन्तत: प्रासाद को ध्वस्त कर डालता है। 163. कार्यसिद्धि सम्पत्ती य विपत्ती य, होज्ज कज्जेसु कारगं पाप । अणुवायतो विपत्ती, संपत्ती कालुवाएहिं ॥ - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 3 पृ. 808] - निशीथ भाष्य 4808 - बृहदावश्यक भाष्य 949 कार्य करनेवाले को लेकर ही कार्य की सिद्धि या असिद्धि फलित होती है । समय पर ठीक तरह से करने पर कार्य सिद्ध होता है और समय बीत जाने पर या विपरीत साधन से कार्य नष्ट हो जाता है । 164. मोहदी-गर्भदर्शी जे मोहदंसी से गब्भदंसी, जे गब्भदंसी से जम्मदंसी । - श्री अभिधान राजेन्द्र कोष [भाग 3 पृ. 840] - आचारांग 18/4/130 अभिधान राजेन्द्र कोष में, सूक्ति-सुधारस • खण्ड-3 • 95
SR No.002318
Book TitleAbhidhan Rajendra Koshme Sukti Sudharas Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyadarshanashreeji, Sudarshanashreeji
PublisherKhubchandbhai Tribhovandas Vora
Publication Year1998
Total Pages206
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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