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संयोग से मेरे हाथ एक पारसी सज्जन कॉमिसिरियेट साहब का गुजरात का इतिहास लगा । उसमें कुछ ऐसे तथ्य मिले हैं जिनसे पता चलता है कि अकबर पर जैनों का प्रर्याप्त प्रभाव था। ऐसी ही प्रचुर सामग्री श्वेताम्बर जैन साहित्य में भी है। दिगम्बर साहित्य में भी ऐसी सामग्री होने की बहुत सम्भावना है। आवश्यकता इस बात की है कि यह सब सामग्री जनता के समक्ष प्रस्तुत हो।
___ इस सन्दर्भ में सेठ शांतिदास जौहरी का उल्लेख जैनों के लिए प्रेरणास्पद है । उन्होंने अपने समय में जैन मन्दिरों का रक्षा के तथा पशु-वध बन्दी आदि के जो कार्य मुगल शासकों से करवाये वह कितना कठिन था, यह इतिहास पढ़ने से ही ज्ञात हो सकता है। औरंगजेब अपने समय का अत्यन्त असहिष्णु
और दुराग्रही माना जाता है। लेकिन तथ्य यह नहीं है। यह अवश्य है कि वह धर्मान्ध था तथा मूर्तियों को तोड़ने तथा मन्दिरों को नष्ट करने में वह धर्म मानता था। सेठ शांतिदास को इसका अनुभव भी था और वे औरंगजेब की मनोवृत्ति से परिचित तथा फिर भी सेठ शांतिदास ने कुशलतापूर्वक उसे अपने विश्वास में लिया और सैकड़ों मन्दिरों की रक्षा के फरमान उससे जारी करवाये। सेठ शांतिदास द्वारा निर्मित एक मन्दिर को औरंगजेब ने अपनी युवावस्था में मस्जिद में परिवर्तित करवा दिया था। किन्तु सेठ शांतिदास ने बाद में उसी से यह आदेश निकलवाया कि इसका उपयोग मन्दिर के रूप में हो तथा वहाँ रहने वाले मौलवी-फकीर आदि हट जावें । मन्दिर से निकाले गये सामान को लौटाने का आदेश भी निकाला गया। यह तो समाज की अदूरदर्शिता रही कि इस मन्दिर को भ्रष्ट माना गया और उसका उपयोग नहीं किया गया। फलतः यह खण्डहर बनकर रह गया। यह खण्डहर आनन्द जी कल्याणजी पेढ़ी के कब्जे में है।
आवागमन के आज की भांति द्र तगामी वैज्ञानिक वाहनों के अभाव में, उन दिनों यात्राएं बड़ी कठिन होती थीं। सेठ को जवाहरात के कार्य के सिलसिले में अनेक बार दिल्ली का प्रवास करना पड़ता था। सुरक्षा के लिए सेना भी रखनी पड़ती थी। यह भी कम साहस का काम नहीं था। ऐसे भी अवसर आये जब सेठ को मुगल सेनाओं से मुकाबला तक करना पड़ा।