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सेठ हेमाभाई
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और राजा-रजवाड़ों को बड़ी-बड़ी रकमें कर्ज के रूप में दी जाती थीं। इनकी हुण्डी की साख पूरे गुजरात में नोट की तरह प्रख्यात थी । परिवार की एकता आदर्श थी । भोजन की पंक्ति में डेढ़ सौ व्यक्ति एक साथ बैठते । वे सब का ध्यान रखते थे
अहमदाबाद पर अंग्रेजों की सत्ता स्थापित हो गई थी, इसलिए संरक्षण के लिए अरबों की सेना और हथियारों का खर्च कम कर दिया था। हाँ, घोड़ागाड़ियाँ, घोड़े, बैलगाड़ियाँ, आदि रखी गयी थीं। उन्होंने राजुंजय, गिरनार और आबू के यात्रा संघ भी निकाले थे ।
हेमाभाई परोपकारी और दानी थे । नियमित देव दर्शन और साधु-साध्वियों की सेवा में पहुँचते । उन्होंने धार्मिक तथा सामाजिक परम्परा में वृद्धि ही नहीं की, व्यापार में भी बहुत प्रगति की और सार्वजनिक कामों में भी दिल खोलकर खर्च करते रहते थे ।
अंग्रेज अधिकारियों ने शिक्षा के क्षेत्र में शुरू किये गये कामों में तथा नगरपालिका में नेतृत्व किया था । उन्हें मंदिर, धर्मशालाएँ, आश्रयस्थान का निर्माण कराने में काफी रुचि थी । स्थापत्य कला के जानकार थे । अहमदाबाद ही नहीं मातर, सरखेज, नरोड़ा, मेधापुर आदि अनेक गाँवों में मंदिर बनाये । वे मंदिर बनाने के निमित्त से या तीर्थयात्रा के लिए जहाँ भी जाते वहाँ सार्वजनिक जरूरतें पूरी करते । जूनागढ़ में हेमाभाई ने धर्मशाला बनाई थी ।
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पालीताणा का राज्य उनके इशारे में था । वे राज्य की व्यवस्था करते थे। अपने शासन में उन्होंने सिद्धाचल पर टोंक बनवाई थी जो 'हिमावसी' के नाम से प्रसिद्ध है । और उनकी बहन ने बहुत खर्च करके 'नंदीश्वरजी की टोंक' निर्मित करायी जो 'उनमफईनी टुक' के नाम से प्रसिद्ध है ।