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तीर्थरक्षक सेठ शान्तिदास
अहमदाबाद का सूबेदार जोधाबाई का जाहिरा स्वागत भी.नहीं कर सकता था और सबसे बड़ी बेगम का अनादर भी करने का साहस नहीं था। इसलिए उसने बीच का मार्ग ढूंढ निकाला। दरबार में सेठ शांतिदास के प्रभाव को सूबेदार जानता था। उसने सेठ शांतिदास को बुलाकर बादशाह की बेगम के स्वागत और निवास का दायित्व सेठ शांतिदास को सौंप दिया। __ सेठ शांतिदास तुरन्त ही दिल्ली से आये । अपनी बड़ी हवेली में बादशाह की बेगम को रख वे छोटे मकान में रहने चले गए। यद्यपि जोधाबाई शहंशाह अकबर की बेगम थीं, पर उसे हिन्दू पद्धति से अपना जीवन बिताने की सुविधा उदार अकबर ने दी थी। शांतिदास सेठ को उनका आदरातिथ्य करने में कठिनाई नहीं हुई । उन्होंने जोधाबाई के स्वागत के लिए खर्च में कोई कसर नहीं रखी । उत्तम साधन सुविधाएं उपलब्ध कर दीं। सेठ शांतिदास बादशाह के रस्मरिवाजों से परिचित थे। इसलिए उचित व्यवस्था करने में कठिनाई नहीं हुई । बेगम उनकी व्यवस्था और मेहमानगिरी से बहुत प्रसन्न हुई और बुलाकर कहा- “जौहरीजी, मैं तुम्हारी मेहमानगिरी से बहुत खुश हूँ।"
"बहनजी, यह तो मेरा फर्ज था। मुझ जैसे के घर आपके चरण पड़े, यही बहुत बड़ी बात है।" ___ "पर इससे बादशाह सलामत नाराज हो गये तो?" बेगम का प्रश्न था ।
शांतिदास सेठ ने कहा, "यदि वे क्षुब्ध हों तो उसकी सजा भुगतने को तैयार हूँ। किन्तु मेहमान की मेहमानतबाजी करना तो मैं अपना फर्ज समझता हूँ।
सहसा बेगम के मुंह से निकल गया-"भाई शांतिदास, तुमने जो कुछ किया उसके लिए एहसानमन्द हूँ।