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तीर्थरक्षक सेठ शान्तिदास
पालन करते । उनमें धर्म-श्रद्धा इतनी अटूट थी कि देव-दर्शन के बिना अन्न-जल तक ग्रहण नहीं करते थे।
वे बादशाह अकबर के दरबार में भी अपना माल लेकर पहुँचते । एक बार बादशाह ने दरबार में सभी जौहरियों को आमंत्रित किया। जवाहरात खरीदने थे। जवाहरात खरीदते-खरीदते वे जवाहरात के अच्छे परीक्षक भी बन गए थे।
बादशाह ने जब जौहरियों के समक्ष एक हीरा रखा और मुख्य जौहरी पन्नालालजी को वह हीरा बताकर कहा-“पन्नालालजी, आप तो अनुभवी जौहरी हैं, बताइए उसकी वाजिब कीमत क्या होनी चाहिए ?"
पन्नालालजी ने हीरा हाथ में लिया, वह शुक्र-तारे की तरह चमक रहा था। वह ३५० रत्ती का हीरा था। पन्नालालली और अन्य सब जौहरियों ने बहुत बारीकी से देखा। उसका तेज, सुन्दर आकार
और उसके रूप को देखकर आश्चर्य चकित हुए, लेकिन मूल्य आंकने में कठिनाई महसूस करने लगे। सभी जौहरी आपस में बातें तो करते, किन्तु उसका मूल्य आंकने में अपने को असमर्थ पाते । जोहरी वर्ग उसका ठीक मूल्य नहीं बता सके।
पन्नालालजी बोले, "जहाँपनाह, हम लोग बचपन से जवाहरात का काम करते आये हैं , लेकिन इस हीरे का ठीक-ठीक मूल्य आंकना हमारे लिए कुछ कठिन है।" __ बादशाह को बड़ी निराशा हुई। इतने में एक युवक पन्नालालजी के पास आकर बोला-"पन्नालालजी, क्या मैं इस हीरे को देख सकता हूँ ?" ___ क्यों नहीं, अवश्य देखिए और पन्नालालजी ने हीरा शांतिदास के हाथ पर रख दिया। शांतिदास ने हीरा हाथ में लेकर उसका