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तीर्थरक्षक सेठ शान्तिदास
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सेठ रत्नों के तो पारखी थे ही, पर मनुष्य के भी परीक्षक थे। सहस्रकिरण की चातुरी देखकर उसे रख लिया। परिवार को रहने की जगह दे दी।
जौहरी जी बड़े ही समझदार थे। सहस्रकिरण का चातुर्य देखकर उसे अपने व्यवसाय की जानकारी देनी शुरू की। हीरा, माणिक, नीलम आदि की परीक्षा और उसका मोल करना सिखाया । युवक चतुर और बुद्धिशाली था ही; सेठजी के अनुभव ने उसे कुछ ही वर्षों में कुशल बना दिया। उसका चातुर्य एवं प्रामाणिकता देखकर सेठजी उसे व्यापार के निमित्त देश के विभिन्न भागों में भेजने लगे। सेठजी के कोई पुत्र नहीं था, एक पुत्री थी जिसके साथ सहस्रकिरण का विवाह करके सारा व्यापार सौंपकर वे स्वयं अपना समय धर्म-ध्यान में बिताने लगे।
सहस्रकिरण को एक पुत्र हुआ, जिसका नाम वर्धमान रखा गया। दूसरा विवाह करने पर दूसरी पत्नी से शांतिदास का जन्म हुआ। ये दोनों भाई बड़े समझदार और सुयोग्य थे। शांतिदास ने गुजराती के साथ-साथ फारसी की शिक्षा भी प्राप्त की और व्यापार के लिए देश-विदेश का प्रवास भी किया। वर्धमान अहमदाबाद में रहकर पेढ़ी का काम संभालता और शांतिदास देश-विदेश का काम करते । मोती खरीदने श्रीलंका जाते तो बर्मा से माणिक लाते । गोलकोंडा से हीरे की खरीदी होती। फिर देश के विभिन्न हिस्सों में प्रवास कर राजाओं, नवाबों तथा बादशाह के दरबार में उनकी बिक्री करते । शांतिदास का स्वभाव शांत था, वाणी में मिठास, व्यवहार में प्रामाणिकता और सौजन्य था। कभी किसी को ठगने का विचार ही उसके मन में नहीं आता था। वृत्ति धार्मिक होने से प्रवास में जाते तो तीर्थों में अवश्य पहुँचते। संतों का सत्संग करते, व्रत-नियमों का