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(2/1)वहइ/आदि (कर्तृवाच्य) तेण/तेणं/तें (3/1) पुत्त/पुत्ता/पुत्तु/ पुत्तो (1/1) गाम/गामा/गामु (2/1) वहिजइ/आदि (कर्मवाच्य)
इसी प्रकार अन्य वाक्य बना लेने चाहिए। यहाँ गत्यार्थक धातु के योग में 'वह' को छोड़कर अन्य क्रियाओं के योग में गौण कर्म में प्रथमा विभक्ति रखी गई है। यहाँ यह जानना चाहिए कि "क्रिया के अर्थ को पूर्ण करने के लिए जिस संज्ञा शब्द को अनिवार्यतः कर्म कारक में रखा जाए वह प्रधान कर्म होता है और जिसे वक्ता अपनी इच्छा से कर्मकारक में रखता है (वह चाहे तो दूसरे कारक में भी रख सकता है) वह गौण कर्म होता है।" (संस्कृत रचना, आप्टे पेज 29) 3. सभी गत्यार्थक क्रियाओं के योग में द्वितीया विभक्ति होती
है, जैसे - सो घर/घरा/घरु (2/1) गच्छइ/आदि (वह घर जाता है।) सप्तमी के स्थान पर कभी-कभी द्वितीया विभक्ति होती है जैसेसूरपयासो दिण/दिणा/दिणु (2/1) पसरइ/आदि सूर्य का प्रकाश दिन में फैलता है। यहाँ दिणे (सप्तमी) के स्थान पर दिण/ दिणा/दिणु (द्वितीया) हुई है। प्रथमा विभक्ति के स्थान पर कभी-कभी द्वितीया विभक्ति होती है, जैसे- चउवीसं (2/1) जिणवरा (1/2)। यहाँ होना चाहिएचउवीसा 1/1 जिणवरा 1/2 । नोट :- संख्यावाची शब्दों के रूपों के लिए देखें प्रौढ अपभ्रंश रचना सौरभ पृ० 37-46 । यदि वस क्रिया के पूर्व उव, अनु, अहि और आ में से कोई भी उपसर्ग हो तो क्रिया के आधार में द्वितीया होती है।
अपभ्रंश व्याकरण : सन्धि-समास-कारक (36)
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