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पार हो जाते हैं। संथारे में साधक सभी से क्षमा याचना कर कर्म क्षय करता है और तीन भव में मोक्ष प्राप्त करता है।
७) गच्छायार (गच्छाचार ) प्रकीर्णक
इसमें गच्छ अर्थात् समूह में रहने वाले श्रमण- श्रमणियों के आचार का वर्णन है। यह प्रकीर्णक महानिशीथ, बृहत्कल्प व व्यवहार सूत्रों के आधार पर लिखा गया है। असदाचारी श्रमण गच्छ में रहता है तो वह संसार परिभ्रमण को बढाता है किंतु सदाचारी श्रमण गच्छ में रहता है तो धर्मानुष्ठान की प्रवृत्ति दिन दूनी रात चौगुनी बढाता है। जो आध्यात्मिक साधन में उत्कर्ष करना चाहते हैं, उन्हें जीवनपर्यंत गच्छ में ही रहना चाहिए क्योंकि गच्छ में रहने से साधना में बाधा नहीं हो सकती है।
इसमें गच्छ गच्छ के साधु, साध्वी, आचार्य उन सबके पारस्पारिक व्यवहार, नियम आदि का विशद वर्णन है ।
ब्रह्मचर्य पालन में सदा जागरुक रहने की ओर श्रमणवृंद को प्रेरित किया गया है। विषय को अधिक, स्पष्ट करते हुए उल्लेख किया गया है कि दृढ चेता स्थविर के चित में स्थिरता दृढता होती है पर, जिस प्रकार धृत अग्नि के समीप रहने पर द्रवित हो जाता है उसी प्रकार स्थविर के संसर्ग से साध्वी का चित्त द्रवित हो जाये ऐसी आशंका बनी रहती है। चंदविजय (चंदविज्झय) यह गच्छाचार का दूसरा भाग है। जिसमें विनय, आचार्यगुण, शिष्यगुण, विनयनिग्रहगुण आदि सात विषयों का विस्तार से विवेचन है ।
८) गणिविज्जा (गणिविद्या) प्रकीर्णक
यह ज्योतिष का महत्त्वपूर्ण ग्रंथ है। गणि शब्द गण के अधिपति या आचार्य के अर्थ में है। संस्कृत में भी गणि शब्द इसी अर्थ में है किंतु इस प्रकीर्णक के नाम के पूर्वार्द्ध में जो गणि शब्द है, वह गण नायक के अर्थ में नहीं है। गणि शब्द की एक अन्य निष्पति भी है। गण् धातू के 'इन्' प्रत्यय लगाकर गणना के अर्थ में गणि शब्द बनाया जाता है। यहाँ उसी अभिप्रेत है, क्योंकि प्रस्तुत प्रकीर्णक में गणना संबंधी विषय वर्णित हैं। इसमें दिन, तिथि, नक्षत्र, करण, ग्रह, दिवस, मुहूर्त, शकुन, बल, लग्नबल, निमित्तबल आदि ज्योतिष संबंधी विषयों का विवेचन है ।
९) देविंदथओ (देवेन्द्रस्तव ) प्रकीर्णक
इसमें बत्तीस देवेन्द्रों का विस्तार पूर्वक वर्णन किया गया है। ग्रंथ के प्रारंभ में कोई श्रावक भगवान ऋषभदेव से लेकर चौबीसवें तीर्थंकर महावीर स्वामी तक की स्तुति कर हुए कहता है कि तीर्थंकर बत्तीस इन्द्रों के द्वारा पूजित हैं। श्रावक की पत्नी यह सुनकर