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________________ 378 उपादेयता बताकर कहा है कि दोनों ही त्यागने योग्य है और शुद्धोपयोग में रहने का उपदेश दिया है। • ज्ञानावरणीयादि आठ कर्मों के योग से पुद्गल कर्म का आगमन होता है वह द्रव्यास्त्रव है, और आत्मा के निज शुभाशुभ परिणामों के कारण पुद्गल द्रव्य कर्म बनकर आत्मा में आते हैं, उन परिणामों को भावास्रव कहते हैं। सकषाय जीव के सांपरायिक आस्रव और अकषाय जीव के ईर्यापथ आस्रव कहते हैं। अर्थात् संसारी जीव रागद्वेषयुक्त कषाय सहित क्रिया करते हैं उसे सांपरायिक आस्रव कहते हैं, जब कि तीर्थंकर परमात्मा रागद्वेषरहित जन कल्याणार्थ आत्मशुद्धि के लिए क्रिया करते हैं उसे ईर्यापथिक आस्रव कहते हैं। आस्रव के पाँच भेद हैं- मिथ्यात्व आस्रव, अव्रत आस्रव, प्रमाद आस्रव, कषाय आस्रव, और अशुभयोग आस्रव आदि पाँच भेद हैं। "कर्मबंध च मिथ्यात्वमुक्तम्"। . कर्मबंध का मूल कारण मिथ्यात्व है। मिथ्यात्व वीतराग के प्रति रुचि होने पर भी उनके विषय में विपरीत अभिनिवेश को उत्पन्न करने वाले को मिथ्यात्व कहा जाता है। आगमशास्त्र में मिथ्यात्व को पाप कहा है। अव्रत आस्त्रव व्रत को विरती कहते हैं और अव्रत को अविरति कहते हैं। प्रमाद आस्त्रव ___मिथ्यात्व और अविरती के समान प्रमादास्रव भी जीव का शत्रु है। जागृतता का अभाव प्रमाद कहलाता है। आत्म कल्याण और सत् प्रवृत्ति में अनादर होना प्रमाद है। कषाय आस्त्रव जिसके द्वारा संसार की वृद्धि होती है, उसे कषाय कहते हैं। कषाय की गति बडी तीव्र होती है। जन्ममरणरूपी यह संसार कषायों से भरा हुआ है। क्रोध, मान, माया और लोभ ये चार कषाएँ हैं। योगास्त्रव मन, वचन और काया की प्रवृत्ति को योग कहते हैं। मन, वचन और काया से होने वाली आत्मा की क्रिया कर्मपरमाणुओं के साथ आत्मा का योग संबंध स्थापित करती है। इसलिए इसे योग कहा गया है। यदि इन पाँचों ही कर्मास्रवों को रोकना हो तो सर्वप्रथम मन,
SR No.002299
Book TitleJain Darm Me Karmsiddhant Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhaktisheelashreeji
PublisherSanskrit Prakrit Bhasha Bhasha Vibhag
Publication Year2009
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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