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________________ 376 समान तीन प्रकार के व्यक्ति पाये जाते हैं। जो अकुशल प्रमादी नाविक होता है उसकी नौका छिद्रयुक्त होने से डूब जाती है। उसी प्रकार अकुशल व्यक्ति द्वारा संसाररूपी महासमुद्र में पाप कर्म का ज्वार आता है। आस्रव-निरोध-रूप संवर न कर पाने के कारण उसकी जीवन नैया पापकर्म से परिपूर्ण होकर डूब जाती है। जो दूसरे अर्धकुशल नाविक की तरह होते हैं। उनकी जीवन नैया छिद्रयुक्त होते हुए भी व्रत, नियम, जप, तप, संयम आदि पुण्यों से वे अपनी डूबती जीवन नैया की मरम्मत करते रहते हैं और आस्रवछिद्र बंद करते रहते हैं। तीसरे प्रकार के साधक अतिकुशल नाविक के समान कष्टों, विपत्तियों, उपसर्गों, परिषहों तथा कषायों के प्रसंग पर समभावरूपी धुरी से अपनी जीवन नैया को खेते हुए प्रशांत कर्मजल से संवर निर्जरा के जल मार्ग से आगे बढ़ते जाते हैं और संसार समुद्र को पार करके सर्वकर्मजल से सर्वथा मुक्त हो जाते हैं। त्रिविध नाविकों के अनुरूप संसारी जीवों के कर्म तीन प्रकार के होते हैं, जिन्हें शास्त्रीय परिभाषा में क्रमश: अशुभ-शुभ और शुद्धकर्म; दूसरे शब्दों में पाप, पुण्य और धर्म कहलाते हैं। शास्त्रों में इन्हें अशुभास्रवरूप-शुभास्रवरूप और संवर निर्जरारूप बताया है। अंतिम शुद्धकर्म को अकर्म कहा है। गीता में इन्हीं तीनों कर्मों को तामस, राजस और सात्त्विक कर्म के रूप में पृथक्-पृथक् लक्षण बताकर निरूपित किया है। बौद्ध दर्शन में अनैतिक, नैतिक और अतिनैतिक कर्म को क्रमशः अकुशल, कुशल और अव्यक्तकर्म कहा है। . बंधक और अबंधक की दृष्टि से विचार करें तो शुभ और अशुभ कर्मबंधक हैं। एक मात्र शुद्ध कर्म ही अबंधक है। छद्मस्थ साधक ज्ञाताद्रष्टा एवं समभावी रहकर शुद्धोपयोग में रहने के लिए प्रयत्नशील रहता है। _ निष्कर्ष यह है शुभाशुभकर्म का क्षेत्र व्यावहारिक और नैतिकता का है। जिसका आचारण समाज सापेक्ष है। जबकि आध्यात्मिकता का क्षेत्र शुद्ध चेतना का है, अनासक्त वीतरागदृष्टि का है, जो व्यक्ति सापेक्ष है, उनका अंतिम लक्ष्य व्यक्ति को बंधन से बचाकर मुक्ति की ओर ले जाना है। यही कर्म के शुभाशुभ और शुद्ध रूप का मूलाधार है। षष्ठमप्रकरण - कर्मों से सर्वथा मुक्ति : मोक्ष जैन दर्शन में कर्मों का स्वरूप बताते हुए आस्रव, संवर, निर्जरा के द्वारा मोक्ष तक किस प्रकार पहुँचा जाता है इसका विस्तृत विवेचन यहाँ किया गया है। जैनधर्म की मान्यतानुसार प्रत्येक साधक को पाप प्रवृत्ति से मुक्त होकर कर्मक्षय करके मोक्ष की दिशा में
SR No.002299
Book TitleJain Darm Me Karmsiddhant Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhaktisheelashreeji
PublisherSanskrit Prakrit Bhasha Bhasha Vibhag
Publication Year2009
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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