SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 387
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 370 बनता है, मोक्ष प्राप्ति में ज्ञानावरणीयकर्म, दर्शनावरणीयकर्म, वेदनीयकर्म, मोहनीयकर्म, आयुष्यकर्म, नामकर्म, गोत्रकर्म और अंतरायकर्म आदि आठकमों का क्षय निमित्त बनते हैं। आठकर्मों में ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अंतराय आदि घातिकर्म हैं; और वेदनीयकर्म, आयुष्यकर्म, नामकर्म और गोत्रकर्म अघातिकर्म हैं। ज्ञानावरणीय ज्ञानरूपी गुण को ढांकने वाला कर्म ज्ञानावरणीयकर्म है। जो कर्म ज्ञान नहीं होने देता, उसे ज्ञानावरणीय कर्म कहते हैं। जिस प्रकार आँख पर पट्टी बाँधने से वस्तु नहीं दिखाई देती उसी प्रकार ज्ञानावरणीय कर्म ज्ञान को आवृत करता है, इससे ज्ञान नहीं होता। ज्ञानावरणीय 'कर्म छ: प्रकार से बँधता है और उसका फल १० प्रकार से भोगा जाता है। ज्ञान के पाँच भेद हैं मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनः पर्यायज्ञान और केवलज्ञान । दर्शनावरणीय कर्म का निरूपण, दर्शनावरणीय कर्म छः प्रकारे बाँधते हैं और ९ प्रकार भोगे जाते हैं तथा दर्शनावरणीय कर्म का प्रभाव । दर्शनावरणीय कर्म आत्मा के दर्शनगुणों को रोकने वाला 'कर्म' 'दर्शनावरणीय कर्म' है, जो दर्शन अर्थात् - अनुभूति में बाधक बनता है वह 'दर्शनावरणीय' कर्म है। जिस प्रकार द्वारपाल राजा के दर्शन नहीं होने देता उसी प्रकार यह कर्म सामान्य बोध नहीं होने देता। दर्शनावरणीय कर्म आत्म ६ प्रकार से बंधता हह और ९ प्रकार से भोगा जाता है। वेदनीयकर्म का विस्तार, साता - असाता का विस्तार साता - असाता कर्म का फलानुभाव । वेदनीयकर्म . जिससे सुख-दुःख का अनुभव होता है वह वेदनीयकर्म है। वेदनीयकर्म का स्वभाव मधु से लिप्त हुई तेज तलवार के समान है। उसे चाटने पर वह मीठी लगती है, लेकिन जिव्हा को काटती है, उसी प्रकार वेदनीयकर्म सुख-दुःख का अनुभव कराता है। वेदनीयकर्म के दो भेद : सातावेदनीय और असातावेदनीय कर्म । यह दश प्रकार से है और १२ प्रकार से भोगा जाता है। मोहनीय मोहनीय कर्म का निरूपण, मोहनीय कर्म का विस्तार, चारित्रमोहनीय कर्म का स्वरूप,
SR No.002299
Book TitleJain Darm Me Karmsiddhant Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhaktisheelashreeji
PublisherSanskrit Prakrit Bhasha Bhasha Vibhag
Publication Year2009
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy