________________
358 जैनसंस्कृति
जैन, वैदिक एवं बौद्ध इन तीनों भारतीय धर्मों की सांस्कृतिक विचारधारा चिरकाल से साथ-साथ बहती चली आयी है। भारतीय वाङ्मय में इन तीनों का मौलिक चिंतन, तात्त्विक विवेचन, सैद्धान्तिक विश्लेषण और आध्यात्मिक साधना का अपना-अपना पृथक् स्थान है। साधारण जन इस तत्त्व को न समझने के कारण अपनी अनंत शक्ति की अभिव्यक्ति से वंचित रह जाते हैं, उस शक्ति को अभिव्यक्त करने के लिए अहर्निश पुरुषार्थ अपेक्षित है। प्रबल पुरुषार्थ से एक न एक दिन अनंत शक्ति का स्रोत अवश्य फूट पडेगा। कायर मानव अपनी शक्ति से अपरिचित रहकर वैभाविक परिणामों में ही भटकता रहता है और वैभाविक अवस्था उसे वास्तविक सुख नहीं दे पाती। . महात्मा गाँधीजी के मन में दृढ विश्वास था कि अहिंसक आंदोलन से यह देश निश्चित रूप से स्वतंत्र हो जायेगा। उन्होंने जब अहिंसक आंदोलन चलाया तब अनेक लोगों ने हँसी उडाई, लेकिन गाँधीजी अपने आत्मबल के आधार पर बढते ही चले गये। इस आत्मविश्वास का अलौकिक प्रभाव हुआ। गाँधीजी के अनूठे आत्मबल के सामने ब्रिटिश शासन को झुकना पडा और भारत स्वतंत्र हुआ।
इस प्रकार आत्मिक शक्ति को लेकर चलने वाले क्या नहीं कर सकते? बस! आवश्यकता है उस अनंत शक्ति के केंद्र को समझने की, उसका ज्ञान प्राप्त कर दृढ संकल्प के साथ आगे बढे तो संपूर्ण विश्व का स्वामी बन सकता है। यही बात आध्यात्मिक जगत की है, आत्मा पर कर्मों का आवरण है यदि उस आवरण को दूर किया जाए तो आत्मा शुद्ध दैदीप्यमान, अनंत शक्ति का स्वामी बन जायेगी। भारतीय दर्शन और जैनदर्शन
भारतीय दर्शन आध्यात्मिक दर्शन है। चार्वाक दर्शन से अतिरिक्त सभी भारतीय दर्शनों ने आत्मा का अस्तित्व माना है। इसका अर्थ यह हुआ कि भारतीय दर्शन प्राय: आत्मवादी है। प्राचीन काल से भारतीय ऋषि मुनियों ने आत्मा के संबंध में चिंतन, मनन किया है।
आत्मस्वरूप को पहचानना ही उन्होंने अपने जीवन का ध्येय माना है। भारतीय दर्शनों का विकास आत्मतत्त्व का केंद्र बिंदु है। भगवान महावीर ने कहा है
जे एगं जाणई से सव्वं जाणइ। जो एक आत्म तत्त्व को जानता है वह सब कुछ जानता है। छांदोग्य उपनिषद् के शांकर भाष्य ६/११ में भी यही बताया है कि
आत्मनि विज्ञाते सर्वमिदं विज्ञातं भवति ।