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है । ३०९ निश्चयदृष्टिचारित्र का वास्तविक अर्थ समभाव या समत्व की उपलब्धि है, इस चारित्र में आत्मरमणता मुख्य होती है। ऐसे चारित्र का प्रादुर्भाव सिर्फ अप्रमत्त अवस्था में ही होता है। और अप्रमत्त चेतना की अवस्था में होनेवाले सभी कार्य शुद्ध माने गये हैं ।
चेतना में से जब राग-द्वेष, कषाय और वासनारूपी अग्नि पूर्ण शांत होती है, वास्तविक जीवन का निर्माण होता है। इस प्रकार का सदाचार ही मोक्ष का कारण है। जब साधक प्रत्येक क्रिया में जागृत रहता है, तब उसका आचरण बाह्य आवेग और वासनाओं से चलित नहीं होता । तभी वह निश्चयचारित्र का पालनकर्ता माना जाता है । और यही चारित्र मुक्ति का कारण है।
आत्मा की विशुद्धि के कारण इस चारित्र की प्राप्ति होती है। जिसका ज्ञान प्राप्त करके जो योगी पाप तथा पुण्य दोनों से ऊपर उठ जाता है, उसे ही निर्विकल्प चारित्र प्राप्त होता है। शुद्ध उपयोग के द्वारा सिद्ध होने वाला अतीन्द्रिय, अनुपम, अनंत और अविनाशी सुख प्राप्त होता है । ३१०
व्यवहार चारित्र
जो आत्मा सांसारिक संबंध के त्याग के लिए उत्सुक है, परंतु जिसके मन से के संस्कार नष्ट नहीं हुए हैं, उसके चारित्र को व्यवहारचारित्र या सराग चारित्र कहते हैं । ३११
शुभ से निवृत्ति और शुभ में प्रवृत्ति यही व्यवहार या सरागचारित्र है । व्यवहारचारित्र की शुरुआत आत्मा के मन, वचन और कर्म की शुद्धि से होती है और उस शुद्धि का कारण आचार के नियमों का परिपालन है । सामान्यतः व्यवहारचारित्र में पाँच महाव्रत, पाँच समिति और तीन गुप्तियों आदि का समावेश होता है । ३१२
जीव को सम्यग्दर्शन एवं ज्ञान से युक्त चारित्र से देवेंद्र, धरणेंद्र और चक्रवर्ती आदि के वैभव के साथ निर्वाण की भी प्राप्ति होती है। सामान्यतया सरागचारित्र से देवेंद्र आदि का वैभव प्राप्त होता है और वीतराग चारित्र से मोक्ष की प्राप्ति होती है । ३१३
निश्चयचारित्र यह साध्यरूप है और व्यवहार उसका साधन है । साधन एवं साध्यरूप इन दोनों चारित्रों को क्रमपूर्वक धारण करने पर जीव मोक्ष को प्राप्त होता है । बाह्य शुद्धि होने पर अभ्यंतर शुद्धि होती है और अभ्यंतर दोषों के कारण ही बाह्य दोष होते हैं । ३१४ : शुद्धात्मा के अतिरिक्त अन्य बाह्य आभ्यंतर परिग्रहरूप पदार्थों का त्याग करना उत्सर्ग मार्ग है । उसे ही निश्चयचारित्र या शुद्धोपयोग भी कहते हैं । ३१५