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________________ 326 पूर्वबद्ध कर्म नष्ट हो जाते हैं। इस प्रकार कर्मों के बंधन से मुक्त होना यही मोक्ष है।२२७ आत्मा के विशुद्ध स्वरूप को ही मोक्ष, मुक्ति, निर्वाण या परमशांति कहते हैं। अत: आत्मा का शुद्ध स्वरूप ही मोक्ष है। बंध का अभाव और घाति कर्म के क्षय से केवलज्ञान उत्पन्न होने पर और शेष सभी कर्मों का क्षय होने पर मोक्ष प्राप्त होता है।२२८ बंध का वियोग ही मोक्ष है। २२९ दूसरे शब्दों में कर्मों का अभाव ही मोक्ष है। २३० शुद्ध आत्म स्वरूप में स्थिर होने की अवस्था ही मोक्ष की अवस्था है, परंतु संसार की स्थिति इससे भिन्न है। जीव जब तक बाह्य पदार्थों की आसक्ति का त्याग नहीं करता है, तब तक आत्मा अपना शुद्ध स्वरूप प्रकट नहीं कर सकती अर्थात् आत्मा बंधन से मुक्त नहीं हो सकती।२३१ जैन दर्शन आत्मारूपी दीपक के बुझने को मोक्ष नहीं मानता, वरन् आत्मा में जो रागद्वेष के विकार आते हैं, उन्हें दूर करके शुद्ध आत्मस्वरूप को प्रकट करना ही मोक्ष है। ऐसा मानता है, क्योंकि जैन दर्शन के अनुसार मुक्तावस्था में आत्मा की ज्ञानज्योति प्रज्ज्वलित रहती है। जैन दर्शन में विशेष करके मोक्ष अथवा मुक्ति शब्द का प्रयोग दिखाई देता है और उसका अर्थ कर्मबंधन से छूटना या मुक्त होना है। अनादिकाल से आत्मा जिस कर्मबंधन से बद्ध है उसे छोडकर संपूर्णतया स्वतंत्र होना ही मोक्ष है। राग-द्वेष से मुक्त होना ही संसार के कर्मबंधन से मुक्त होना है, इसी का अर्थ मोक्ष और सिद्धत्व की प्राप्ति है। यह आत्मा की परम विशुद्ध अवस्था है। __ मोक्ष का सुख शाश्वत है। उसके सुखों का कभी अंत नहीं होता। देवों के सुख अगणित हैं, परंतु देवों का त्रैकालिक सुख भी एक सिद्ध आत्मा के सुख के अनंतवे भाग की भी बराबरी नहीं कर सकता। २३२ मोक्ष का स्वरूप जीव मात्र का परम और चरम लक्ष्य है मोक्ष प्राप्त करना। जिसने सारे कर्मों का नाश करके अपना साध्य प्राप्त कर लिया, उसने पूर्ण सुख प्राप्त कर लिया है। कर्म बंधन से मुक्ति प्राप्त होने पर जन्म-मरणरूपी दु:ख के चक्र की गति रुक जाती और सच्चिदानंद स्वरूप की प्राप्ति होती है। मोक्ष में आत्मा की वैभाविक दशा समाप्त हो जाती है। मिथ्यादर्शन सम्यग्दर्शन हो जाता है, अज्ञान सम्यग्ज्ञान हो जाता है, अचारित्र सम्यकचारित्र हो जाता है, आत्मा निर्मल और निश्चल हो जाती है, शांत एवं गंभीर सागर के समान चेतना निर्विकल्प हो जाती है। मोक्ष दशा में आत्मा का अभाव नहीं होता और वह अचेतन भी नहीं रहता। आत्मा एक स्वतंत्र द्रव्य है। उसके अभाव और नाश की कल्पना करना मिथ्यात्व है। कितना भी परिवर्तन हुआ हो तो भी आत्मद्रव्य का नाश नहीं हो सकता। कर्मों से मुक्ति राग-द्वेष से संपूर्ण क्षय
SR No.002299
Book TitleJain Darm Me Karmsiddhant Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhaktisheelashreeji
PublisherSanskrit Prakrit Bhasha Bhasha Vibhag
Publication Year2009
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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