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________________ 324 रस, अनुभाग, अनुभाव और फल ये समानार्थी शब्द हैं। कर्म के विपाक को 'अनुभागबंध' भी कहते हैं। विपाक दो प्रकार का होता है १) तीव्र परिणाम से बाँधे हुए कर्म का विपाक तीव्र होता है। २) मंद परिणाम से बाँधे हुए कर्म का विपाक मंद होता है। कर्म जड़ होने पर भी पथ्य और अपथ्य आहार के समान जीव को अपनी क्रिया के अनुसार फल की प्राप्ति होती है।२१४ विविध प्रकार के फल देने की शक्ति को अनुभाव कहते हैं। कर्मानुरूप ही उसका फल मिलता है। ज्ञानावरणादि कर्मों का जो कषायादि परिणामजनित शुभ या अशुभ रस है, वह अनुभाव बंध है अथवा आठकर्म और आत्मप्रदेशों के परस्पर एकरूपता के कारणभूत परिणाम को अनुभाग कहते हैं अथवा शुभाशुभ कर्म की निर्जरा के समय सुख-दुःखरूप फल देने वाली शक्ति को अनुभाग बंध कहते हैं। प्रदेशबंध प्रदेशबंध कर्म पुद्गलों का समूह है। प्रदेशबंध भी प्रकृतिबंध से होता है। प्रत्येक प्रकृति के अनंत प्रदेश होते हैं। आठकर्मों की प्रकृति भिन्न-भिन्न है। कर्मराशि का ग्रहण होने पर भिन्न-भिन्न स्वभाव में रूपांतरित होने वाली यह कर्मराशि स्वभाव के अनुसार विशिष्ट परिमाण में विभक्त होती है। यह परिमाण विभाग अर्थात् मात्रा ही प्रदेशबंध है।२१५ जो पुद्गल स्कंध कर्मरूप से परिणत हुए हैं, उनका परमाणु रूप से परिणमन निर्धारित करना कि इतने परमाणु बाँधे गये, यह प्रदेशबंध है। २१६ तत्त्वार्थसूत्र में भी यही कहा है। दूसरे शब्दों में कर्मवर्गणा की अथवा कर्मपरमाणुओं की हीनाधिकता को प्रदेशबंध कहते हैं। २१७ कर्म वर्गणा के पुद्गल दलिक जिस परिमाण में बँधते हैं, उस परिमाण को प्रदेश बंध कहते हैं।२१८ अथवा कर्म और आत्मा के संश्लेष को प्रदेशबंध कहते हैं।२१९ . ___ आत्मा के असंख्य प्रदेश होते हैं। इन असंख्य प्रदेशों में से एक-एक प्रदेश पर अनंतानंत कर्म वर्गणाओं का संग्रह होना ‘प्रदेशबंध' है। जीव के प्रदेशों और पुद्गल के प्रदेशों का एक क्षेत्रावगाही होकर स्थित होना प्रदेशबंध है। २२० जो घनांगुल के असंख्यातवें भाग के समान एक क्षेत्र में स्थित है। जिनकी एक, दो, तीन आदि समय से लेकर असंख्यात समय की स्थिति है, जो उष्ण और शीत तथा रूक्ष और स्निग्ध स्पर्श से सहित है, समस्त वर्ण और रसरहित है, सभी कर्म प्रकृतियों के योग्य हैं, पुण्यपाप के भेद से दो प्रकार के हैं, सूक्ष्म हैं जो समस्त आत्मप्रदेशों में अनंतानंत प्रदेशों सहित हैं ऐसे स्कंधरूप या पुद्गल, कार्मण वर्गणाओं के परमाणु समूह को यह जीव जो अपने अधीन करता है, वह 'प्रदेशबंध' है२२१
SR No.002299
Book TitleJain Darm Me Karmsiddhant Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhaktisheelashreeji
PublisherSanskrit Prakrit Bhasha Bhasha Vibhag
Publication Year2009
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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