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________________ 288 समवायांग ३४ और तत्त्वार्थसूत्र ३५ में आस्रवद्वार पांच प्रकार के बताये हैं२) अव्रत, ३) प्रमाद, ४) कषाय, १) मिथ्यात्व, ये पाँच बंध हेतु अर्थात् आस्रव है । जीव के परिणाम हैं। ५ ) योग । मिथ्यात्व आस्त्रव कर्मबंध का मूल कारण कौनसा है ? इस प्रश्न के उत्तर में कहा गया है, कि कर्मबंध: च मिथ्यात्व-युक्तम् । अर्थात् कर्मबंध का मूल कारण मिथ्यात्व है । ३६ मिथ्यात्व को मिथ्यादृष्टि तथा मिथ्यादर्शन भी कहते हैं। मिथ्यात्व जब तक रहेगा अन्य कारण भी रहेंगे, इसलिए आस्त्रव के कारणों में प्रथम स्थान मिथ्यात्व को तथा अविरति, प्रमाद, कषाय और योग को क्रमशः दूसरा, तीसरा, चौथा और पाँचवा स्थान दिया गया है। इन पाँच स्थानों में प्रथम मिथ्यात्व का स्थान प्रमुख है और वह पाँचों स्थानों में दिखाई देता है । ३७ मिथ्यादृष्टि याने मिथ्या अर्थात् असत्य और दृष्टि अर्थात् दर्शन अथवा श्रद्धा असत्यश्रद्धान या असत्य दर्शन मिथ्यादृष्टि है। जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा, और आदि नौ तत्त्वों पर विरुद्ध श्रद्धान को मिथ्यात्व कहते हैं । इस विपरीत श्रद्धान के कारण जड़ पदार्थों में चैतन्य बुद्धि, अतत्त्व में तत्त्व बुद्धि, अधर्म में धर्म बुद्धि आदि विपरीत भावनाएँ होती हैं। मिथ्यात्व के कारण सारासार विवेक नहीं रहता । पदार्थ के स्वरूप के विषय में गलत धारणा बनती है। कल्याणमार्ग पर सच्ची श्रद्धा नहीं रहती । मिथ्यात्व - सहज और गृहीत दो प्रकार का होता है। दोनों प्रकार के मिथ्यात्व में तत्त्वविषयक 'अभिरुचि निर्मित नहीं होती। आत्मा कुदेव को देव, कुगुरु को गुरु और अंध श्रद्धाओं को धर्म मानता है । ऐसा वर्णन जैनेन्द्रसिद्धांतकोष ३८, योगशास्त्र, ३९ जैन दर्शन ४० और धवला ४१ आदि में आता है। मिथ्यात्व बुद्धि को इस प्रकार आच्छादित करता है कि यथार्थ दृष्टि नहीं रह पाती, साथ ही दूसरे के विषय में भी यथार्थ दृष्टि नहीं रह पाती । मिथ्यादृष्टि की स्वरूप स्थिति को संक्षेप में विवेक शून्य, निर्जीव शरीर कहा जाता है। जीव जब मिथ्यात्व से युक्त हो जाता है, तब अनंतकाल तक संसार का बंध करते हुए संसार में परिभ्रमण करता रहता है, क्योंकि मिथ्यात्व ही सब दोषों का मूल है। राग के प्रति रुचि होने पर भी उनके विषय में विपरीत अभिनिवेश ( आग्रह ) को . उत्पन्न करने वाला मिथ्यात्व कहलाता है। साथ ही बाह्य विषयों में परसंबंधी शुद्ध आत्मतत्त्व से लेकर संपूर्ण द्रव्य तक जो विपरीत आग्रह को उत्पन्न करता है उसे मिथ्यात्व कहते हैं । ४२
SR No.002299
Book TitleJain Darm Me Karmsiddhant Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhaktisheelashreeji
PublisherSanskrit Prakrit Bhasha Bhasha Vibhag
Publication Year2009
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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