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________________ 287 आत्मा के स्वयं के जिन शुभ-अशुभ परिणामों के कारण पुद्गल द्रव्यकर्म बनकर आत्मा में आते हैं, उन परिणामों को भावास्स्रव कहते हैं । २५ ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय, मोहनीय, आयुष्य, नाम, गोत्र, अंतराय इन आठ कर्मों के योग से जिस पुद्गल कर्म का आगमन होता है, वह द्रव्यास्त्रव है । २६ जीव के द्वारा हर समय मन, वचन और कायाद्वारा शुभ या अशुभ प्रवृत्ति होती है, उन्हें जीव का भावास्त्रव कहते हैं। उसके निमित्त से कुछ विशेष प्रकार की जो जड़ पुद्गल वर्गणाएँ आकृष्ट होकर उसके प्रदेश में प्रवेश करती हैं, वह द्रव्यास्त्रव है । २७ T ईर्यापथ और सांपरायिक आस्त्रव जैन आगम में आस्रव के सामान्यतः दो भेद और कहे गए हैं। ईर्यापथ आस्रव और सांपरायिक आस्रव । कषाय सहित जीव को सांपरायिक आस्रव होता है और कषाय-रहित वीतराग जीव को ईर्यापथ आस्रव होता है । २८ तत्त्वार्थश्लोकावार्तिक २९ में भी यही कहा है। कषाययुक्त योग से होने वाला सांपरायिक आस्त्रव बंध का कारण होने से संसार को बढाता है । पराय का अर्थ है संसार । संसार के कारणभूत कर्मों को सांपरायिक कर्म कहते हैं संपरायः संसारः तत् प्रयोजनम् कर्म सांपरायिकम् । जो कर्म संसार का प्रयोजन है और संसार की वृद्धि करने वाला है, ऐसे कर्म के आगमन को सपरायिक अस्त्रव कहते हैं । ३० आत्मा का संपराय अर्थात् पराभव करने वाला कर्म सांपरायिक है। योग द्वारा आकृष्ट होने वाले कर्म पुद्गल कषाय के उदय के कारण आत्मा से चिपक जाते हैं और स्थिति प्राप्त करते हैं, यह सांपरायिक कर्म है। ईर्यापथिक और सांपरायिक दोनों प्रकार के आस्रवों में योग निमित्त है। तीनों प्रकार के योग समान हैं, फिर भी यदि कषाय न हो, तो उपार्जित कर्म में स्थिति का बंध नहीं होता । स्थितिबंध का कारण कषाय है, इसलिए कषाय ही संसार का मूल कारण है अर्थात् सकषाय जीव के आस्रव को सांपरायिक आस्रव और अकषाय जीव के आस्रव को ईर्यापथ आस्रव कहते हैं । ३१ तत्त्वार्थसार में भी यही कहा है । ३२ आस्रव के पाँच भेद आज मानवजाति के समक्ष अगणित समस्याएँ हैं। मानव समस्याओं से क्यों ग्र ता है और क्यों इनके कटु फल भोगता है ? इन समस्याओं का मूल स्रोत क्या है ? इसे जानना आवश्यक है। वीतराग परमात्मा ने समस्याओं का मूल स्रोत 'आस्रव' कहा है। 1 यह आस्रव जन्म, जरा, व्याधि, मृत्यु आदि दुःखरूप संसार का मूल हेतु है। ठाणांग ३३
SR No.002299
Book TitleJain Darm Me Karmsiddhant Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhaktisheelashreeji
PublisherSanskrit Prakrit Bhasha Bhasha Vibhag
Publication Year2009
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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