________________
273
शुभाशुभ कर्मों के बंधन से छूटने का उपाय बताते हुए गीताकार कहते हैं- 'तू जो कुछ कर्म करता है, जैसे कि खाना, पीना, हवन आदि करना अथवा तप, दान करता है, वह शुभाशुभ कर्म मुझे (परमात्मा को) अर्पित करदे अर्थात् सभी कर्मों के प्रति फलासक्ति भाव मत रख। इस प्रकार भगवदर्पण से तू संन्यास योगयुक्त होकर तेरा मन शुभ-अशुभ फल देने वाले कर्म बंधनों से मुक्त हो जायेगा और तू विमुक्त होकर मुझे (परमात्मा को) प्राप्तत कर लेगा'।१८०
इस प्रकार गीता का भी संकेत अध्यात्म पूर्ण जीवन के लिए अशुभ कर्म से शुभ कर्म की ओर तथा शुभ कर्म से शुद्ध कर्म की ओर बढना है। बौद्ध दर्शन का भी अंतिम लक्ष्य शुभ (शुक्ल) और अशुभ (कृष्ण) कर्म से ऊपर उठकर शुद्ध (अशुद्ध अकृष्ण) कर्म की प्राप्ति करना है। 'सुत्तनिपात' में भगवान बुद्ध का वचन है। 'जो पुण्यपाप को त्याग कर शांत (निवृत्त) हो गया है, इस लोक और परलोक के यथार्थ स्वरूप को ज्ञात करके कर्मरज से रहित हो चुका है, जो जन्म मरण से पर हो चुका है, उस स्थिर श्रमण को स्थितात्मा कहा जाता है।'
___ इसी प्रकार सुत्तनिपात में सभिय परिव्राजक द्वारा बुद्ध वंदना में भी कहा गया है- जिस प्रकार मनोहर पुंडरीक कमल जल में लेपायमान नहीं होता, इसी प्रकार बुद्ध पुण्य-पाप दोनों में लेपायमान नहीं होते।१८१ वस्तुत: बौद्धदर्शन भी जैनदर्शन की तरह शुभाशुभ कर्म से ऊपर उठकर शुद्धकर्म में स्व-शुद्ध स्वरूप में स्थिर होने की बात कहता है।
इसी प्रकार पाश्चात्य आचारदर्शन के अनेक पुरस्कर्ताओं ने भी आध्यात्मिक परिपूर्णता के क्षेत्र में पहुँचने की बात को महत्त्व दिया है। 'ब्रेडले' नामक दार्शनिक के अनुसार पूर्ण आत्म साक्षात्कार के लिए नैतिकता (शुभाशुभ) के क्षेत्र से ऊपर उठेगा, तब ईश्वर से तादाम्य स्थापित होगा तब शुभ और अशुभ का द्वन्द या विरोभास समाप्त हो जायेगा।१८२
निष्कर्ष यह है कि, शुभाशुभकर्म का क्षेत्र व्यावहारिक नैतिकता है। जिसका आचरण समाज सापेक्ष है, जबकि पारमार्थिक, नैतिकता (आध्यात्मिकता) का क्षेत्र शुद्ध चेतना का है, अनासक्त, वीतराग दृष्टि का है, जो व्यक्ति सापेक्ष है, उसका अंतिम लक्ष्य व्यक्ति को बंधन से बचाकर मुक्ति (पूर्ण स्वतंत्रता) की ओर ले जाना है। यही कर्म के शुभ, अशुभ और शुद्ध रूप का मूलाधार है।