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________________ 265 इष्टोपदेश में कहा गया है- 'जो आत्म स्वभाव में स्थिर है, वह बोलते हुए भी नहीं बोलता, चलते हुए भी नहीं चलता, देखते हुए भी नहीं देखता है। १४° उत्तराध्ययन सूत्र में भी कहा है- 'रागादि भावों से विरक्त व्यक्ति शोक रहित हो जाता है, वह संसार में रहते हुए भी कमल-पत्रवत् अलिप्त रहता है। १४१ संक्षेप में जो प्रवृत्तियाँ या कर्म रागादियुक्त होने से शुभ बंधन कारक हैं, वे कर्म हैं। जो अशुभ बंधनकारक हैं, वे विकर्म हैं और जो प्रवृत्तियाँ या कर्म राग-द्वेष रहित होने से बंधनकारक नहीं हैं, वे अकर्म ही हैं। भगवद्गीता में कर्म, विकर्म और अकर्म का स्वरूप भगवद्गीता में कर्म, विकर्म और अकर्म के स्वरूप पर गहराई से चिंतन प्रस्तुत किया गया है। 'हे अर्जुन ! कर्म की गति अतीव गहन है। इसलिए बुद्धिमान मनुष्य को कर्म और विकर्म (निषिद्ध कर्म) का स्वरूप जानना चाहिए। साथ ही अकर्म के स्वरूप का बोध भी करना चाहिए। इस प्रकार का विवेक करने वाला साधक कर्म में अकर्म को देखता है और अकर्म कहे जानेवाले कार्य में कर्म को भी पहचान जाता है, ऐसा व्यक्ति मनुष्यों में श्रेष्ठ और बुद्धिमान होता है वह सहज और अनिवार्य सभी शारीरिक कर्म करता है।' गीता के अनुसार कर्म वह है जो फल की इच्छा से किया जाता है, भले ही वह शुभ हो। यज्ञ, दान, तप, त्याग, व्रत, नियम, श्रद्धा, भक्ति आदि शुभ कार्य भी यदि शुभ रागाविष्ट होकर प्रसिद्धि प्रशंसा या प्रतिस्पर्धावश किये जाते हैं तो गीता की दृष्टि से कर्म हैं। इन्हें आगे चलकर गीता में राजसकर्म भी कहा गया है। __'कभी-कभी बाह्य रूप से विकर्म प्रतीत होने वाले कर्म भी कर्ता की बुद्धि अगर आसक्ति आदि से लिप्त नहीं हैं, न ही अहंकार है तो शुद्ध भाव से अथवा किसी को न्याय दिलाने अथवा किसी महिला के शील की रक्षा करने आदि कर्तव्य बुद्धि से किये जाने वाले पापकर्म फलोत्पादक कर्म भी शुभकर्म में अथवा अकर्म में भी परिणत हो जाते हैं १४२ किन्तु निष्काम बुद्धि से प्रेरित होकर युद्ध तक लडा जा सकता है। 'तिलक १४३ के इस मत से जैन दर्शन सहमत नहीं है, क्योंकि- अकर्म अवस्था वीतराग अवस्था है, वीतराग अवस्था में सांसारिक प्रवृत्तिमय कर्म किया जाना संभव नहीं यह शुभकर्म में परिगणित हो सकता है। प्रवचनसार१४४ में जो बात कही है वह गीता१४५ में प्रतिध्वनित हुई है। बाहर में प्राणी मरे या जीए, जो अयत्नाचारी प्रमत्त है, उसके द्वारा हिंसा (जन्यकर्मबंध) निश्चित है, परंतु जो यत्नाचारशील है, समितियुक्त है, उससे बहार से होने वाली (द्रव्य) हिंसा मात्र से कर्मबंध नहीं होता, क्योंकि वह अंतर से सर्वतोभावेन हिंसादि सावध व्यापार से निर्लिप्त होने के कारण निष्पाप (निरवद्य) है। उससे होनेवाली स्थूल हिंसा भावहिंसा नहीं है।
SR No.002299
Book TitleJain Darm Me Karmsiddhant Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhaktisheelashreeji
PublisherSanskrit Prakrit Bhasha Bhasha Vibhag
Publication Year2009
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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