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________________ 240 मोहनीय कर्म ने घाति कर्मबद्ध संसारी जीव को इतना परतंत्र बना दिया कि, अपने स्वरूप का तथा स्वरूप की प्राप्ति का निश्चय और व्यवहार दोनों दृष्टियों से यथार्थ भान नहीं हो पाता। इस कर्म के कारण न तो जीव आत्मदर्शन कर पाता है और न ही कल्याणमार्ग में लगता है। कषायाविष्ट तथा रागद्वेषाविष्ट होकर वह बार-बार मोह मूर्छित होकर या दृष्टि विपर्यास के कारण आत्मा से संबंधित प्रत्येक गुण एवं स्वभाव को विपरीत रूप में जानता मानता है अथवा दृष्टि सम्यक् हो तो भी राग-द्वेष कषायादि के आवेग के कारण उसकी चारित्र पालन की शक्ति अवरुद्ध हो जाती है। यह मोहनीय कर्म है, जो आत्मा को दीर्घकाल तक परतंत्र बनाये रखता है। गोम्मटसार में इसे मद्यपान की उपमा देकर समझाया है कि, जिस प्रकार मदिरा पिया हुआ मनुष्य अपना भान भूल जाता है, वह मद्य के नशे में चूर होकर न तो किसी वस्तु के यथार्थ स्वरूप का निश्चय कर सकता है, न ही उसकी चेष्टा या व्यवहार सही होता है। इसी प्रकार उसकी दृष्टि, समझ, आचरण या व्यवहार सबके सब विपरीत हो जाते हैं।२० इसी प्रकार मोहनीय कर्मरूपी मद्य में मोह मूढ होकर व्यक्ति न तो अपनी आत्मा के स्वभाव को समझ सकता है और न ही तदनुरूप, निश्चय तथा सम्यक् चारित्र रूप व्यवहारचारित्र का पालन कर पाता है। प्राय: छद्मस्थ जीव मोहमद्य से मूर्च्छित है। उसकी चेतना प्रमत्त है, मोहकर्म परतंत्र है। अंतराय कर्म ___आत्मा की सबसे बड़ी विशेषता है- अनंतशक्ति संपन्नता। वह शक्ति क्रमश: पाँच भागों में विभक्त है- दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्य (पराक्रम) । संसारी जीव की इस विशिष्ट असीम आत्मशक्ति को अंतराय कर्म प्रकटित नहीं होने देता। यह कर्म प्रत्येक कार्य में विध्न उपस्थित करता है। धर्म कार्य में तप, सेवा तथा देव, गुरु, धर्म आदि की भक्ति में बाधा उपस्थित करना अंतराय कर्म का कार्य है। इस कर्म के कारण जीव शक्तिहीन एवं पराधीन बन जाता है। अंतराय कर्म इतना प्रबल आत्मगुण घातक है कि, वह चिरकाल तक आध्यात्मिक दानादि कार्यों को करने में शक्ति लगने ही नहीं देता।२१ इसलिए कर्मशास्त्रियों ने अंतराय कर्म की तुलना राजा के भंडारी से की है। राजा द्वारा प्रसन्न होकर एक लाख रुपये देने के आदेश को रुखा दिखाने पर भी उसे रुपये देने से मना करता है। इसी प्रकार आत्मरूपी या परमात्मरूपी राजा का अमूक आध्यात्मिक आदेश होने पर भी अंतराय कर्मरूपी भंडारी उस शक्ति के प्रकटीकरण में बाधा उपस्थित करता है। इस प्रकार अंतराय कर्म आत्मा की शक्ति को कुंठित करके परतंत्र बना देता है। यह कर्म अनेक वर्षों तक कार्य में व्यवधान
SR No.002299
Book TitleJain Darm Me Karmsiddhant Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhaktisheelashreeji
PublisherSanskrit Prakrit Bhasha Bhasha Vibhag
Publication Year2009
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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