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________________ 239 को ग्रहण करता है, वह सविकल्प है और जो उपयोग सामान्य अंश को ग्रहण करता है, वह निर्विकल्प है। इस प्रकार आत्मा की ज्ञान शक्ति और दर्शन शक्ति दोनों असीम अनंत हैं। संसारी छद्मस्थ आत्मा की ज्ञानशक्ति और दर्शनशक्ति दोनों ही आवरण से मुक्त नहीं हैं। एक ओर ज्ञानावरणीय कर्म छाया हुआ है, दूसरी ओर दर्शनावरणीय कर्म। आत्मा की अनंत (असीम) ज्ञानशक्ति किस प्रकार आवृत है ? इस संबंध में गोम्मटसार में१८ एक उपमा द्वारा समझाया गया है कि, जिस प्रकार किसी के नेत्र पर कपडे की पट्टी बाँध देने से उसे किसी वस्तु का विशेष ज्ञान नहीं हो पाता। उसी प्रकार आत्मा के असीम ज्ञान पर ज्ञानावरणीय कर्म का आवरण लगा हुआ है अथवा दर्पण खुला हो (आवरण रहित हो या धुंधला न हो) तो उसमें प्रत्येक व्यक्ति अपना प्रतिबिंब हूबहू देख सकता है, परंतु उस पर पर्दा पड़ा हो अथवा वह धुंधला हो तो उसमें प्रतिबिंब यथार्थ रूप से नहीं दिखाई दे सकता। इसी प्रकार आत्मारूपी दर्पण पर ज्ञानावरणीय कर्मरूपी पर्दा पडा होने से आत्मा का असीम ज्ञान प्रगट नहीं हो पाता। सम्यग्ज्ञान का अधिकांश भाग आवत हो जाता है। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि, संसारी छद्मस्थ आत्मा का स्वभाव ज्ञानावरणीय कर्म से आवृत है। उसका ज्ञानकर्म परतंत्र है, स्वतंत्र नहीं है। दर्शनावरणीय कर्म इसी प्रकार संसारस्थ आत्मा की दर्शनशक्ति भी स्वतंत्र नहीं है। वह भी दर्शनावरणीय कर्म से आवृत है। आत्मा की दर्शनशक्ति किस प्रकार आवृत है ? इसे भी गोम्मटसार में एक रूपक द्वारा समझाया गया है - एक व्यक्ति राजा से साक्षात्कार करना चाहता था। राजसभा के द्वार पर आकर जब वह राजा से मिलने के लिए सीधा प्रवेश करने लगा, तभी द्वारपाल ने उसे रोक दिया। इसी प्रकार संसारी छद्मस्थ आत्मा के दर्शन स्वभाव को दर्शनावरणीय कर्मरूपी द्वारपाल रोके हुए हैं। अत: दर्शन आवृत होने के कारण वह भी परतंत्र है, कर्माधीन मोहनीय कर्म संसारी छद्मस्थ आत्मा की सम्यक्दर्शन और सम्यक्चारित्र इन दोनों की शक्ति भी अवरुद्ध है, कुंठित है। मोहनीय कर्म इस आत्मा के साथ ऐसा लगा हुआ है कि, उसने मनुष्य की सम्यग्दृष्टि और सम्यक्चारित्र दोनों को विपर्यस्त एवं विकृत कर दिया है। आत्मा को परतंत्र बनाकर दुःखी करने में सबसे प्रमुख स्थान मोहनीय कर्म का है। मोहनीय कर्म के कारण जीव का ज्ञान अज्ञान रूप बन जाता है। जीव अपने स्वरूप में स्थित न होकर क्रोधादि विकृत अवस्था को प्राप्त करता है। दर्शनमोहनीय कर्म के कारण देव, गुरु, धर्म, शास्त्र तथा तत्त्वों के विषय में सम्यक्श्रद्धा से वंचित रहता है।
SR No.002299
Book TitleJain Darm Me Karmsiddhant Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhaktisheelashreeji
PublisherSanskrit Prakrit Bhasha Bhasha Vibhag
Publication Year2009
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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