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रुचिकर होने मात्र से अपनी कटुता छोडकर मधुरता में परिणत नहीं हो जाता। . दशवैकालिकसूत्र में कहा है, 'जहाँ उद्वेग या क्लेश पैदा होता हो, उस स्थान को दूर से त्याग कर देना चाहिए।' अत: राग-द्वेष के मूल कारणों से बचना आवश्यक है। जैसे-जैसे प्रबल निमित्त मिलते जाते हैं, वैसे-वैसे कभी राग का पलडा भारी होता है तो कभी द्वेष का पलड़ा भारी हो जाता है। इसलिए राग और द्वेष की न्यूनाधिकता का नाप तोल करना बहुत कठिन है।२४५
वैदिक परंपरा में परशुराम ने क्षत्रिय जाति के प्रति तीव्र द्वेषवश इक्कीस बार पृथ्वी को क्षत्रिय विहीन बनाया था। उनकी प्रतिज्ञा थी कि इस पृथ्वी पर एक भी क्षत्रियपुत्र नहीं रहना चाहिए। परशुराम का यह द्वेष किसी एक दो क्षत्रियों पर नहीं अपितु समस्त क्षत्रिय जाति के प्रति था। रोम का सम्राट नीरो, हिटलर, मुसोलीनी, चर्चिल, चंगेज खाँ, नादिरशाह आदि ऐसे क्रूर कर्मा हुए हैं। जिनकी द्वेष बुद्धि प्रचंड रूप में सामूहिक नरसंहार करने को आतुर थी, जिसे मानवजाति कभी माफ नहीं कर सकती।
रागबुद्धि की अपेक्षा द्वेषबुद्धि अत्यंत भयानक है। प्राय: राग सीमित रहता है, किन्तु द्वेष बहुत शीघ्र बढकर प्रचंड दावानल की भाँति असीमित बन जाता है। राग या द्वेष में नुकसानकारक कौन?
जिस वैभाविक भाव से आत्मा के गुणों का घात तीव्र या शीघ्र रूप से हो उसे अधिक नुकसान कारक समझना चाहिए। राग-द्वेष से आत्मिक हानि होती है। जिस आत्मा में रागद्वेष जितने कम या ज्यादा होंगे, कर्मबंध उतना तीव्र-मंद रस तथा न्यूनाधिक स्थिति वाला होगा। तीव्र राग वृत्ति से और तीव्र द्वेष वृत्ति से तीव्र कर्मबंध होता है। अत: दोनों का तीव्र बंध नुकसानकारक एवं हानिकारक है, फिर भी दोनों की हानिकारक मात्रा का हिसाब लगाने पर यह कहा जा सकता है कि रागवृत्ति की अपेक्षा द्वेषवृत्ति अधिक हानिकारक है। द्वेषवृत्ति वाले में रौद्र ध्यान की तीव्र क्रूर परिणति अधिक होने के कारण उसकी लेश्याएँ अशुभ से अशुभतर बनती जाती हैं। यद्यपि राग-भाव जीवन में प्रतिक्षण कर्मों को निमंत्रण देता है, किन्तु उसकी लेश्याएँ इतनी क्रूर और घातक नहीं होती।
द्वेष दाहक और भस्म करने वाला है। अग्नि को शांत करने के लिए जितनी सावधानी रखनी पडती है उससे भी अनेक गुणी अधिक सावधानी द्वेष को शांत करने के लिए आवश्यक है। द्वेष, क्षमा, समता से शान्त होता है। ___ कोई भी धर्मक्रियाएँ तीव्र राग-द्वेष के परिणाम से की जाये तो उनका सत्व नष्ट हो जाता है। जैसे तीर्थंकर महावीर ने विश्वभूति के जन्म में मासखमण की तपस्या के दौरान अपने चचेरे भाई विशाखानंदी को मारने हेतु तीव्र द्वेष से प्रेरित होकर नियाणा (निदान)