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अन्य परंपरा में तीन अवस्थाएँ
वैदिक परंपरा में कर्मों की क्रियमाण, २३६ संचित और प्रारब्ध ये तीन अवस्थाएँ बताई गई हैं। ये जैन दर्शन की क्रमश: बंध, सत्ता और उदय समानार्थक है। २३७ बौद्ध दर्शन में २३८ नियत विपाकी कर्म, जैन दर्शन की निकाचना के लिए प्रयोग किया जाता है। इसी प्रकार कर्म फल के संक्रमण की धारणा स्वीकार की गई है। बौद्ध दर्शन भी यह मानता है, कि यद्यपि कर्म (फल) का विप्रणाश नहीं है, तथापि कर्मफल का सातिक्रमण (संक्रमण) हो सकता है।
बौद्ध कर्म विचारणा में जनक, उपस्थंभक, उपपीलक और उपघातक। ऐसे चार कर्म माने जाते हैं। जनक कर्मसत्ता (जैन कर्मशास्त्र) से तुलनीय है। उपस्थंभक उत्कर्षण की प्रक्रिया में सहायक माने जाते हैं। उपपीलक कर्मशक्ति क्षीण करते हैं अत: अपकर्षण के समान है, उपघातक कर्म शक्ति रोकने के कारण उपशमन के समान है। कर्मबंध का मूल कारण : राग-द्वेष ' आगमों में कर्मबंध के मुख्य दो कारण बताये हैं- राग, द्वेष । २३९ उत्तराध्ययनसूत्र, २४० समवायांगसूत्र, २४१ और उत्तराध्ययनसूत्र २४२ में भी कहा है। राग-द्वेष परस्पर अन्योन्याश्रित हैं। राग-द्वेष की प्रवृत्ति से मोहनीय कर्म उत्पन्न होता है। मोहनीय कर्म के उदय में आने पर इन्द्रियों के विषयों में राग-द्वेष होते हैं फिर इससे नवीन कर्म बंध होते हैं और कर्म बंध के उदय से पुनः राग-द्वेष होते हैं, इस भाँति बंध व उदय का चक्र चलता रहता है। राग-द्वेष का पहिया बंध एवं उदय के रूप में घूमता रहता है। ऐसे बंध और उदय के चक्र में अनंतकाल से आत्मा संसार में परिभ्रमण कर रही है। राग से द्वेष को, द्वेष से राग को पुनः-पुन: ग्रहण कर रही है। इसलिए कहना होगा कि राग-द्वेष परस्पर सहभावी हैं। . व्यक्ति, वस्तु, घटना, परिस्थिति, विषय, विचार आदि के प्रति यदि मन में अनुकूलता महसूस होती है, तो उसके साथ राग-रूप संबंध जुड़ जाते हैं और प्रतिकूलता महसूस होती हो तो उसके साथ द्वेष रूप संबंध जुड़ जाते हैं। यह संबंध ही बंधन है। २४३ राग और द्वेष के पर्यायवाची शब्द इस प्रकार बताये हैं- इच्छा, मूर्छा, कामना, गृद्धि, स्नेह, ममता, अभिलाषा, लालसा, तृष्णा आदि तथा ईर्ष्या, दोष-दृष्टि-निंदा, चुगली आदि द्वेष के पर्यायवाची शब्द हैं।
शास्त्रों में राग तीन प्रकार के बताये हैं। स्नेह राग-व्यक्तियों के प्रति होता है, काम राग-इन्द्रियों के विषय में होता है और दृष्टि राग कुप्रवचनादि या सिद्धांत से विरुद्ध मत स्थापन के प्रति होता है। २४४ जीवों की इच्छा के अनुसार वस्तु का स्वभाव नहीं बदलता, बल्कि मोहवश रुचि के अनुसार वह अच्छा बुरा माना जाता है। जैसे नीम कटु होते हुए भी किसी को रुचिकर लगता है और किसी को रुचिकर नहीं लगता, किन्तु नीम किसी को