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________________ 202 का भोग कर लिया जाता है। तब इस शरीर से छुटकारा मिलता है। चाहे कोई व्यक्ति दु:खद या सुखद स्थिति में क्रमश: मरने या जीने की इच्छा रखें किन्तु आयुष्य कर्म के अस्तित्व तक उन स्थितियों को उसे भोगना ही पड़ता है। आयुष्य कर्म का स्वभाव कारागृह के समान बताया है।१३१ यह कर्म आत्मा के अविनाशित्व गुण को रोक देता है। आयुष्य कर्म का स्वभाव पैर में पडी हुई बेडी के समान बताया है।१३२ जैसे पैर में बेडी पड जाने पर मनुष्य एक ही स्थान से बंध जाता है, वैसे ही आयुष्य कर्म आत्मा को उसी जन्म में निर्धारित अवधि तक रोक रखता है और उसके उदयकाल में उस जन्म में छुटकारा नहीं मिलता। जैसे जेल में पड़ा हुआ मनुष्य उससे बाहर निकलना चाहता है, परंतु सजापूर्ण हुए बिना नहीं निकल सकता, वैसे नरकादि गतियों में रही हुई आत्मा आयुष्य पूर्ण हुए बिना उस गति को छोड नहीं सकती। आयुष्य कर्म का विस्तार आयुष्य कर्म की चार प्रकृति - १) नरक का आयु, २) तिर्यंच का आयु, ३) मनुष्य का आयु, ४) देव का आयु१३३ . उत्तराध्ययन सूत्र में१३४ भी यही कहा है। आयुष्य कर्म १६ प्रकार से बाँधे ___स्थानांग सूत्र १३५ में नरकायुष्य कर्म बंध के चार कारण बताये गये हैं। प्रज्ञापनासूत्र१३६ और तत्त्वार्थसूत्र १३७ में भी यही कहा है। १) महारंभ, २) महापरिग्रह, ३) मद्यमांस का सेवन, ४) पंचेन्द्रियवध। १) महारंभ आरंभ अर्थात् हिंसाजनक क्रिया कलाप। तीव्र क्रूर भावों के साथ अधिक संख्या या अधिक मात्रा में किया गया कार्य महारंभ कहलाता है। जो आत्मा महारंभ में आसक्त रहती है, वह नरक गति का आयुष्य बाँध लेती है। शास्त्र में काल सौरिक कसाई का वर्णन आता है। जो लोग बडे पैमाने पर पार्टी महाभोज आयोजित करते हैं, जिसमें त्रस जीवों की हिंसा होती हो, फलस्वरूप उन्हें नरक गति के मेहमान बनना पडता है।१३८ २) महापरिग्रह महापरिग्रह का अर्थ है वस्तुओं पर अत्यंत मूर्छाभाव या आसक्ति रखना। अत्यधिक परिग्रह रखने का भाव यानी अत्यधिक संचय करने की वृत्ति। विशाल धन संपत्ति होने मात्र से कोई महापरिग्रही नहीं हो जाता। भरत चक्रवर्ती के पास छ:खण्ड का साम्राज्य तथा
SR No.002299
Book TitleJain Darm Me Karmsiddhant Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhaktisheelashreeji
PublisherSanskrit Prakrit Bhasha Bhasha Vibhag
Publication Year2009
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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