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________________ 168 १७१ १७१ १७२ १७४ १७५ १७७ १७८ १७८ १७९ १७९ १८० चतुर्थ प्रकरण कर्म का विराट स्वरूप कर्मबंध की व्यवस्था अष्टकर्मों का क्रम कर्म के मुख्य दो विभाग कर्मों के लक्षण ज्ञानावरणीय कर्म का निरूपण ज्ञानावरणीय कर्म का अनुभाव फल भोग ज्ञानावरणीय कर्म की उत्तर प्रकृतियाँ मतिज्ञानावरणीय कर्म मतिज्ञानावस्णीय कर्म बंध के कारण और निवारण श्रुतज्ञानावरणीय कर्म श्रुतज्ञानावरणीय कर्मबंध के कारण और निवारण अवधिज्ञानावरणीय कर्म मन:पर्यायज्ञान की विशेषता केवलज्ञान ज्ञानावरणीय कर्म का प्रभाव दर्शनावरणीय कर्म का निरूपण दर्शनावरणीय कर्म छः प्रकार से बांधे दर्शनावरणीय कर्म का प्रभाव वेदनीय कर्म का निरूपण वेदनीय कर्म का विस्तार असातावेदनीय कर्म का फलानुभाव सातावेदनीय कर्म दश प्रकार से बांधे असातावेदनीय कर्म बारह प्रकार से बांधे साता-असातावेदनीय कर्म का प्रभाव मोहनीय कर्म का निरूपण मोहनीय कर्म का विस्तार चारित्रमोहनीय कर्म का स्वरूप दर्शनमोहनीय कर्म की तीन प्रकृतियाँ चारित्रमोहनीय कर्म के दो भेद १८० १८१ १८२ १८३ १८४ १८६ १८७ १८८ १८८ १८९ १९० १९० १९१ १९३ १९३ १९४ १९४
SR No.002299
Book TitleJain Darm Me Karmsiddhant Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhaktisheelashreeji
PublisherSanskrit Prakrit Bhasha Bhasha Vibhag
Publication Year2009
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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