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________________ 143 सार्वभौम सत्ता है, परंतु यह बहुत बड़ी भ्रान्ति है। इसे तोडना ही चाहिए। कर्म ही सब कुछ नहीं। कुछ ऐसी भी स्थितियाँ हैं जो कर्म से प्रभावित नहीं होती। आत्मा में ऐसी एक शक्ति है, जो कर्म से प्रभावित नहीं होती। आत्मा में ऐसी एक शक्ति है, जो कर्म से पूर्ण रूपेण कदापि आवृत नहीं होती। यदि आत्मा पर कर्म पूर्णरूप से हावी हो जाते तो वह उसे कदापि तोड नहीं पाता। यदि कर्म ही सब कुछ होता तो मनुष्य समस्त बंधनों को तोडकर कभी सिद्ध बुद्ध मुक्त नहीं हो पाता। कर्म ही सार्वभौम सत्ता संपन्न होते तो कोई भी जीव अव्यवहार राशि से निकलकर व्यवहार राशि में नहीं आ सकते थे, अर्थात् अविकसित जीवों की श्रेणी से वह विकसित जीवों की श्रेणी में कभी नहीं आ पाते। ___ कर्म का ही एक छत्र साम्राज्य होता तो अनादिकाल से मिथ्यात्व ग्रस्त व्यक्ति मिथ्यात्व के उस गाढ़ अंधकार का भेदन नहीं कर पाते, किन्तु आत्मा में ऐसी शक्ति है कि, जैसे सूर्य के उदय होते ही चिरकाल का गाढ़ अंधकार एकदम विलुप्त हो जाता है। वैसे ही जब आत्मा अपनी शक्ति के प्रति जाग्रत हो जाती है, तब वह कर्मचक्र को तोड़ने में समर्थ हो जाती है। यदि कर्म का ही एक छत्र साम्राज्य होता तो आत्मा की शक्ति कभी उसे चुनौती नहीं दे पाती, यदि आत्मा के चैतन्य स्वभाव का सर्वदा स्वतंत्र अस्तित्व न होता तो कर्म ही सब कुछ हो जाते, परंतु आत्मा का चैतन्य स्वभाव कभी अपने आपको नष्ट होने या बदलने नहीं देते, इसलिए कर्म आत्मा पर कितना भी प्रभाव डाले, वह एकाधिकार नहीं जमा सकता। कर्म तब तक टिकता है, जब तक चेतना नहीं जागती। चेतना के जागृत होते ही कर्म स्वत: नष्ट होने लग जाते हैं। आज प्राय: आम आदमी की धारणा ऐसी बन गई है कि, वह सहसा कह बैठता है'क्या करे ऐसे ही कर्म किये थे इसलिए ऐसा हो गया। कर्मों का ऐसा ही भोग था। हमारे बस की बात नहीं रही।' व्यावहारिक क्षेत्र में कर्मवाद से अनभिज्ञ व्यक्ति यह कह बैठते हैं 'हम से यह साधना नहीं हो सकती', इसका मतलब यह है कि ऐसे व्यक्तियों के मन में यह पक्की धारणा बैठ गई है कि हम सब कर्माधीन हैं, परंतु इस मिथ्या धारणा को मस्तिष्क से निकाल देना चाहिए कि कर्म या अन्य काल आदि कोई भी एकांत सर्वेसर्वा शक्तिमान नहीं है। प्रकृति के विशाल साम्राज्य में किसी को अधिनायकत्व या एकाधिकार प्राप्त नहीं है। कुछ शक्तियाँ काल में निहित हैं, कुछ स्व-पुरुषार्थ में, कुछ परिस्थिति में और कुछ स्वभाव में निहित हैं, तो कुछ शक्तियाँ कर्म में भी रही हुई हैं। चैतन्य की वास्तविक शक्ति पुरुषार्थ में निहित है, जिसके जरिये वह कर्म को भी बदल सकता है। हमारी चैतन्य शक्ति का प्रतीक अथवा हमारी क्षमता का अभिव्यक्त रूप पुरुषार्थ है।
SR No.002299
Book TitleJain Darm Me Karmsiddhant Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhaktisheelashreeji
PublisherSanskrit Prakrit Bhasha Bhasha Vibhag
Publication Year2009
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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