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निश्चित किया था, किन्तु कर्मलीला बडी विचित्र है कि राज्याभिषेक के बदले रामचंद्रजी को वनगमन करना पड़ा। श्रीराम जैसे महान आत्मा द्वारा वनवास दिया जाना भी कर्मशक्ति का प्रत्यक्ष उदाहरण है। इस युग के आदि तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव को दीक्षा लेने के पश्चात् बारह महीने तक यथाकल्प आहार न मिलना भी उनके पूर्वकृत कर्म का ही फल है।६३ समवायांग सूत्र६४ में भी यही कहा है।
भगवान ऋषभदेव को आहार प्राप्ति में काल और स्वभाव तो अनुकूल ही थे, उन्होंने पुरुषार्थ भी भरपूर किया था। फिर भी आहार प्राप्ति न हुई इसके पीछे पूर्वकृत कर्म के सिवाय और क्या कारण हो सकता है? सती दमयंती और सती अंजना को दीर्घकाल तक पति वियोग हो जाना, त्रिखण्डाधिपति वासुदेव श्रीकृष्ण जैसे प्रचंड पराक्रमी पुरुष की जराकुमार के बाण से मृत्यु होना, सत्यवादी हरिश्चंद्र जैसे प्रतापी राजा को चाण्डाल के यहाँ नौकर रहकर श्मशान घाट का प्रहरी बनना पडे। इस प्रकार की अतार्किक एवं अप्रत्याशित घटनाएँ कर्म की महिमा को उजागर कर रहीं हैं। व्यक्ति चाहे जितना उपाय करले, अमुक कार्य के लिए पुरुषार्थ भी पूरा-पूरा कर ले, उसका वैसा अभ्यास और स्वभाव भी हो, समय भी उस कार्य की सफलता के लिए अनुकूल हो, फिर भी पूर्वकृत कर्मों का उदय हो तो उसके आगे किसी की नहीं चलती।
इस विश्व में जो कुछ भी विचित्रता, विविधता, अभिनवता या विरूपता दृष्टि गोचर हो रही है, उसका मूल कारण एकमात्र कर्म ही है। कर्म के कारण तीर्थंकर महावीर जैसे महापुरुष के कानों में कीले ठोके गये और शालिभद्र जैसे व्यक्ति के लिए बिना मेहनत के दिव्यलोक से रत्नों की पेटियाँ उतर कर आती थी। कर्म के प्रभाव से ही जीवों को विविध गतियाँ, योनियाँ, शरीर आदि प्राप्त होते हैं।६५
अत: संसार में समस्त क्रियाओं, बैर विरोधों, अन्तरायों, राग-द्वेष आदि विकारों तथा समस्त व्यवहारों, विचारों और आचरणों के पीछे कर्म का फल है। जगत की विचित्रता का समाधान कर्म को माने बिना हो नहीं सकता। अत: कर्मवाद का मूल उद्देश्य विश्व की दृश्यमान विषमता की गुत्थी को सुलझाना है। कर्म अनुकूल हो तो काल भी वैसा हो जाता है, स्वभाव भी वैसा ही बन जाता है और भवितव्यता भी वैसी हो जाती है। पुरुषार्थ करने की बुद्धि भी शुभकर्म हो, तभी होती है, अन्यथा आलस्य, निद्रा, लापरवाही आदि में ही मनुष्य का समय चला जाता है। कई बार उद्यम करने पर भी शुभ कर्मोदय न हो तो अभिष्ट वस्तु नहीं मिलती अथवा मिल जाने पर भी हाथ से चली जाती है या नष्ट हो जाती है।६६ कर्मवाद की समीक्षा
कुछ लोगों में यह भ्रान्ति फैली हुई है कि कर्म सर्वशक्ति संपन्न है। उसी की संसार में