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________________ 132 मोक्ष, कर्म एवं कर्मफल के प्रति विषय में उनके मन में संशय था, उन ग्यारह गणधरों की शंकाओं का समाधान भगवान महावीर स्वामी ने किया है। दूसरे भावी गणधर अग्निभूति ने तो कर्म के अस्तित्व के विषय में शंका व्यक्त की थी।३९ उसके समाधान के प्रसंग में भगवान महावीर ने कर्म का अस्तित्व सिद्ध किया है। साथ ही कर्म मूर्त, परिणामी, विचित्र, अनादि काल संबंद्ध और अदृष्ट है इत्यादि कर्मवाद संबंधी रहस्यों का भी उद्घाटन किया है। - भगवान महावीर ने इन ग्यारह ही विद्वान ब्राह्मणों की शंकाओं का समाधान कर्मवाद की दृष्टि से किया, तब ग्यारह ब्राह्मणों ने सत्य को समझकर कर्मक्षय की साधना करने के लिए स्व-इच्छा से अपने शिष्य समुदाय के साथ मुनिधर्म अंगीकार किया और कर्मों को खपाकर सिद्ध, बुद्ध, मुक्त हुए। केवलज्ञान होते ही चतुर्विध संघ स्थापना के पश्चात् भगवान कर्मविज्ञान संबंधी अपने अनुभव ज्ञाननिधि सार्वजनिक रूप से वितरित करने लगे। उन्होंने सांसारिक जीवों की आधि, व्याधि, उपाधि तथा विविध अवस्थाओं का मूल कारण कर्म को बताया। कृतकर्मों को भोगे बिना छूटकारा नहीं हो पाता। आत्मा से परमात्मा के पृथक् भाव को भी कर्म जनित बताया। जहाँ जहाँ भी अवसर मिला अथवा जो जो जिज्ञासु आए, उनके संघ के साधुओं के संपर्क में आये युक्तिसंगत चर्चाएँ की, कर्मवाद की ही प्रतिष्ठा की। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र वर्णों को जन्म से महान नहीं बल्कि कर्म से महानता का सिद्धांत निरूपण किया।४० और भगवतीसूत्र में यत्र-तत्र कर्मवाद के आविष्कारण की चर्चा मिलती है। निष्कर्ष यह है कि भौतिकवादी शरीर के नाश होने के बाद कृतकर्मों का फल भोग करने वाले तथा पुनर्जन्म ग्रहण करने वाले किसी स्थाई तत्व को नहीं मानते कर्मवाद की दृष्टि से आत्मा मूलरूप में कभी नष्ट नहीं होती, कर्म के कारण विभिन्न योनियों और गतियों में भ्रमण करती है। इस प्रकार भगवान महावीर ने कर्मवाद सिद्धांत का आविर्भाव किया। कर्मवाद का मूल स्रोत कर्मवाद का आविर्भाव तो प्रवाह रूप से अनादि है, नया नहीं, फिर भी इस कालचक्र के अवसर्पिणीकाल के प्रारंभ से आदि तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव के युग से प्रागैतिहासिक काल प्रारंभ होता है, इसलिए प्रागैतिहासिक काल से कर्मवाद का मूल-स्रोत और उससे संबंधित प्रत्येक पहलुओं का विशद प्रतिपादन जितना जैन परंपरा में मिलता है उतना अन्य परंपरा में नहीं।४२
SR No.002299
Book TitleJain Darm Me Karmsiddhant Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhaktisheelashreeji
PublisherSanskrit Prakrit Bhasha Bhasha Vibhag
Publication Year2009
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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