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________________ _130 उठाये, समुद्र के अथाह जल पर तैरता हुआ मनुष्य को दूर-सुदूर गन्तव्य स्थान तक ले जाता है। जब मनुष्य को आकाश में उडकर द्रुतगति से कुछ ही घंटों में हजारों मील दूर गन्तव्य स्थान पर पहुँचने की आवश्यकता हुई, समय की बचत करने की इच्छा हुई तो उसने एक से बढकर एक शीघ्रगामी वायुयानों का आविष्कार किया। स्थल पर शीघ्र गति में पहुँचने की इच्छा से उसने रेलगाडी, मोटरगाडी, बस आदि का आविष्कार किया, जो शीघ्र ही गन्तव्य स्थल तक पहुँचा देती है। सैकडों टन माल एक स्थान से दूसरे स्थान पर पहुँचाने के लिए मालगाडी, भारवाहक ट्रक का आविष्कार मानव बुद्धि की उपज है। इसी प्रकार मानव ने अपने भौतिक जीवनयापन के लिए जिन-जिन वस्तुओं, उत्पादक यंत्रों, मशीनों आदि का आविष्कार किया। दूर सुदूर बैठे हुए व्यक्ति से बातचीत करने के लिए उसने फोन, मोबाईल, वायरलेस आदि का, उसका चित्र तथा वाणी सुनने आदि की आवश्यकता पडी तो उसने रेडिओ, टेलिविजन, वीडियो कैसेट आदि का आविष्कार किया। इस प्रकार मानव ने एक से बढकर एक आविष्कार जीवन के सभी क्षेत्रों की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए किये। इतना ही नहीं, कितनी ही ऐसी वस्तुएँ भी मानव ने आविष्कृत की हैं जो सबको आश्चर्य में डालने वाली हैं। कितने ही ऐसे पदार्थों का आविष्कार भी उसने किया जो उसके नगर, गाँव या विश्व के मानव बंधु के लिए अत्यंत हानिकारक एवं विनाशकारी हैं।२८ कर्मवाद का आविष्कार क्यों किया गया? ___ कर्मवाद का आविष्कार क्यों किया गया? आदि तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव के समक्ष कौन सी ऐसी परिस्थितियाँ थी, कौन सी ऐसी आवश्यकता थी अथवा कौन सी ऐसी विवशताएँ थी जिनके कारण उन्हें कर्मवाद संबंधी इतना सूक्ष्म चिंतन जगत् के समक्ष प्रस्तुत करना पडा? वैसे तो प्रत्येक कालचक्र में होने वाले तीर्थंकरों द्वारा प्रस्तुत कर्मवाद को प्रवाह रूप से अनादि माना है, तो इस अवसर्पिणी काल में भगवान ऋषभदेव को कर्मवाद का आविष्कारक क्यों माना? क्योंकि उस समय जनता की वृद्धि और कल्पवृक्षों का अभाव जिसके कारण जनता में असंतोष, अत्याचार, अनैतिकता, छीना-झपटी, कलह तथा धार्मिक तत्त्वों के प्रति अनभिज्ञता, फलत: मनमाना आचरण एवं स्वच्छन्दाचार आदि अनेक विकट संकट उपस्थित थे। ___उस युग का मानव धर्म, कर्म, कर्तव्य और दायित्व से बिल्कुल अबोध था, ऐसे समय में आदि तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव ने उस युग की जनता को नैतिक धार्मिक एवं आध्यात्मिक पथ पर लाने के लिए कर्मवाद का सांगोपांग बोध दिया उन्होंने स्वयं अनगार बनकर पूर्वबद्ध कर्मों से मुक्ति पाने के लिए कठोर साधना की। उन्होंने धर्मसंघ (धर्मतीर्थ) स्थापित किया।
SR No.002299
Book TitleJain Darm Me Karmsiddhant Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhaktisheelashreeji
PublisherSanskrit Prakrit Bhasha Bhasha Vibhag
Publication Year2009
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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