SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 127
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 115 कर्मों को क्षय कर डालता है, अर्थात् आत्मा के साथ कर्मों के संबंध को सर्वथा समाप्त कर देता है, और सिद्ध बुद्ध मुक्त हो जाता है इसी कारण भव्यजीवों के कर्म संबंध को अनादि सांत माना गया है। अर्थात् कर्म प्रवाह की दृष्टि से भव्यजीव का कर्म संबंध अनादि है किन्तु उसका अंत अवश्य है। __सैद्धान्तिक दृष्टि से देखा जाये तो आत्मा के साथ कर्म का संयोग प्रथम (मिथ्यात्व गुणस्थान) से प्रारंभ होता है और तेरहवें (सयोगी केवली) गुणस्थान तक यह चलता है। चौदहवे (अयोगी केवली) गुणस्थान में योगों (मन, वचन, काया की प्रवृत्ति) का सर्वथा निरोध हो जाने पर आत्मा कर्म से सर्वथा वियुक्त (मुक्त) हो जाता है। आत्मा का फिर कर्म के साथ पुनः संयोग नहीं होता। ___ इस प्रकार कर्म का अस्तित्व अनादि सिद्ध होने के साथ-साथ कर्म कब से लगते हैं। और कब तक रहते हैं? इस संदर्भ में आत्मा पहले या कर्म? आत्मा के साथ-कर्म के त्रिविध संबंध कौन से और कैसे है? इन सब शंकाओं का युक्ति संगत यथोचित समाधान दिया है।
SR No.002299
Book TitleJain Darm Me Karmsiddhant Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhaktisheelashreeji
PublisherSanskrit Prakrit Bhasha Bhasha Vibhag
Publication Year2009
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy