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________________ 114 अभीष्ट की दृष्टि से कर्म संतति की कोई आदि नहीं है अनादिकाल से जीव कर्मों की बेडियों में जकडा हुआ है। अतीत काल में ऐसा कोई समय नहीं आया जब यह आत्मा कभी कर्मों से जकडा हुआ था पृथक् नहीं था। भूतकाल में ऐसा कोई समय नहीं थी कि आत्मा और परमाणु पृथक्-पृथक् पडे हों, और किसी न किसी समय उन्हें मिश्रित कर दिया हो। ऐसा होने पर तो कर्ममुक्त सर्वथा विशुद्ध सिद्धालय स्थित आत्मा भी अकारण ही स्वतः कर्मबद्ध हो जायेगी, अपनी अकर्म स्थिति को सुरक्षित नहीं रख पायेगी। अत: आत्मा और कर्म के संबंध को प्रवाह रूप से अनादि ही मानना चाहिए। भव्य और अभव्य जीव का लक्षण कर्म मुक्ति की साधना की दृष्टि से दो प्रकार के जीव माने जाते हैं भव्य और अभव्य। जिस जीव में मोक्ष प्राप्त करने की योग्यता है, ज्ञान, दर्शन, चारित्र रूपी संदर्भ की आराधना करके मुक्त होने की क्षमता है वह जीव भव्य कहलाता है और जिस जीव में मोक्ष प्राप्त करने की योग्यता, सम्यक्दर्शन की ज्योति से अपनी अंतरात्मा को आलोकित करने का सामर्थ्य नहीं है वह अभव्य कहलाता है। अभव्यजीव का कर्म के साथ अनादि अनंत संबंध जैनदृष्टि से अभव्यजीव अपने आत्म प्रदेशों से कर्म परमाणुओं को सर्वथा पृथक् कदापि नहीं कर पाते। उनके आत्म प्रदेशों के साथ कर्म परमाणुओं का संबंध सदैव सतत किसी न किसी रूप में बना ही रहता है। अतएव अभव्यजीवों (आत्माओं) का कर्म के साथ संबंध अनादि अनंत माना गया है। वन्ध्या नारी लाख प्रयत्न करले फिर भी वह माँ बनने का सौभाग्य प्राप्त नहीं कर सकती, वैसे ही अभव्य जीव भी अपनी स्वभाव सिद्ध प्रकृति के कारण सम्यक्दर्शन का स्पर्श कदापि नहीं कर पाता। वह मिथ्यात्व के गहन अंधकार में डूबा हुआ ही समग्र जीवन यापन करता है। अत: ऐसे अभव्य जीव (आत्मा) का कर्म संबंध सदैव स्थाई होने से अनादि अनंत कहलाता है। १९२ भव्यजीव का कर्म के साथ संबंध अनादि सान्त भव्यजीव का कर्म के साथ संबंध अनादि सांत माना जाता है, क्योंकि भव्यजीव साधनानुरूप योग्य साधन प्राप्त होने पर सम्यक्दर्शन प्राप्त करता है, तत्त्वों का ज्ञान करता है, तत्पश्चात् सम्यक्चारित्र का पालन करके कर्मों को आंशिक रूप से आत्मा से पृथक् (निर्जरा) कर देता है। इसके पश्चात् सम्यक्दर्शनादि रत्नत्रय की सम्यक् आराधना साधना करके समस्त
SR No.002299
Book TitleJain Darm Me Karmsiddhant Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhaktisheelashreeji
PublisherSanskrit Prakrit Bhasha Bhasha Vibhag
Publication Year2009
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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