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________________ 112 करने लगेगी, परंतु दशाश्रुतस्कंध के अनुसार कर्मबीज दग्ध हो जाने के पश्चात् कर्ममुक्त शुद्ध सिद्ध परमात्मा संसार में फिर कभी नहीं आते। १७९ आत्मा प्रथम है या कर्म ? यह ऐसी प्रश्नावली है जिसका कोई उत्तर आत्मा को या कर्म को प्रथम माननेवालों के पास नहीं है, इसलिए कर्म और आत्मा, इन दोनों में भी पहले पीछे का प्रश्न खड़ा किया जायेगा तो अनेक उलझने आकर व्यक्ति के दिमाग के चारों ओर घेरा डालकर खडी हो जाएगी। इस प्रकार अनेक तर्क वितर्क अपना तीर तानकर समाधान प्राप्त करने के लिए उपस्थित हो जायेगें।१८० 'कर्मवाद एक अध्ययन' १८१ इसमें भी यह बात कही है। यदि जीव (आत्मा) को पहले कर्मरहित मान लिया जाये तो उसके बंध का अभाव हो • जायेगा और शुद्ध आत्मा के भी कर्मबंध मानने पर उसकी मुक्ति कैसे होगी? पंचाध्यायीकार का आशय यह है कि पूर्व अशुद्धता के बिना बंध नहीं होता। पूर्व में शुद्ध जीव के भी कर्मबंध मान लेने पर निर्वाण प्राप्ति असंभव हो जायेगी । जब शुद्ध जीव के कर्मबंध मानेंगे तो संसार चक्र बार बार चलते रहने से मुक्ति कभी नहीं हो सकेगी । १८२ यह शुद्धि - अशुद्धि का सिलसिला चलता ही रहेगा तो यह कहाँ का सिद्धांत है कि शुद्धि के बाद अशुद्धि आ जाये । वस्तुतः उसे शुद्धि ही नहीं कहना चाहिए। ज्ञानसार १८३ में इस तथ्य को स्पष्ट किया गया है जो साधक समता कुंड में स्नान करके अनंत अनंत काल लिए कषाय तथा रागद्वेषादि जनित कर्म कृत मल को धो डालता है, वह कभी भी अशुद्ध मलिन नहीं होता। वास्तव में वह अन्तरात्मा ही परम शुद्ध विमल है । १८४ भगवद्गीता १८५ में भी यही बात कही है। कर्म पहले और आत्मा बाद में इस मन्तव्य के अनुसार यह मानना पडेगा कि आत्मा ने भी एक दिन जन्म लिया । आत्मा भी एक उत्पन्न विनष्ट होने वाला पदार्थ हुआ। संसार का यह नियम है कि जिसका जन्म होता है उसका मरण अवश्य होता है परंतु आत्मा के उत्पन्न विनाश या जन्म मरण का विचार भारत के किसी भी आस्तिक दर्शन को मान्य नहीं है। सभी आस्तिक दर्शनों ने आत्मा को एक स्वर से अजन्मा, नित्य, अविनाशी और शाश्वत माना है । १८६ ऐसी दुविधापूर्ण स्थिति में जैनदर्शन के महामनीषियों ने आत्मा और कर्म इन दोनों में पहले कौन और पीछे कौन? यह गुत्थी दोनों को अनादि तथा दोनों के संबंध को भी अनादि कहकर सुलझा दी है। दोनों के अनादि संबंध का अंत कैसे ? आत्मा और कर्म का अनादि संबंध मानने पर उस संबंध का अंत कैसे होगा? वह
SR No.002299
Book TitleJain Darm Me Karmsiddhant Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhaktisheelashreeji
PublisherSanskrit Prakrit Bhasha Bhasha Vibhag
Publication Year2009
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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