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प्रस्तावना "तारों की ज्योति में चंद्र छिपे नहीं सूर्य छिपे नहीं बादल छाये। मेघ गर्जन से मोर छिपे नहीं, सर्प छिपे नहीं पूंगी बजाये ॥ जंग जुड़े रजपूत छिपे नहीं, दातार छिपे नहीं मांगन आये।
जोगी का वेष अनेक करो, पर कर्म छिपे न भभूति रमाए॥" ___ जिस प्रकार तारों की ज्योति में चंद्र छिपता नहीं, सूर्य बादलों में छिपता नहीं, मेघ गर्जना से मोर छिपता नहीं, पुंगी बजने पर सर्प छिपता नहीं, युद्ध के समय रजपूत छिपता नहीं, मांगने वालों से दाता छिपता नहीं, उसी प्रकार जोगी का वेश धारण करने पर और भभूति लगाने से भी कर्म छूटते नहीं।
आज का युग विज्ञान का युग है। इस युग में विज्ञान शीघ्र गति से आगे बढ़ रहा है। विज्ञान के नवनवीन आविष्कार विश्वशांति का आवाहन कर रहे हैं। संहारक अस्त्र-शस्त्र विद्युत गति से निर्मित हो रहे हैं।
__ आज मानव भौतिक स्पर्धा के मैदान में तीव्रगति से दौड़ रहा है। मानव की महत्त्वाकांक्षा आज दानव के समान बढ़ रही है। परिणामत: मानव निर्जीव यंत्र बनता चला जा रहा है। विज्ञान के तूफान के कारण धर्मरूपी दीपक तथा तत्त्वज्ञान रूपी दीपक करीब-करीब बुझने की अवस्था पर पहुँच गये हैं। ऐसी परिस्थितियों में आत्मशांति तथा विश्वशांति के लिए विज्ञान की उपासना के साथ तत्त्वज्ञान की उपासना भी अति आवश्यक है।
आज दो खंड आमने सामने के झरोखे के समान करीब आ गये हैं। विज्ञान ने मनुष्य को एक दूसरे से नजदीक लाया है, परंतु एक दूसरे के लिए स्नेह और सद्भाव कम हो गया है। इतना ही नहीं मानव ही मानव का संहारक बन गया है।
विज्ञान का विकास विविध शक्तियों को पार कर अणु के क्षेत्र में पहुंच चुका है। मानव जल, स्थल तथा नभ पर विजय प्राप्त कर अनंत अंतरिक्ष में चंद्रमा पर पहुंच चुका है। इतना ही नहीं अब तो मंगल तथा शुक्र ग्रह पर पहुँचने का प्रयास भी जारी है। भौतिकता के वर्चस्व ने मानव हृदय की कोमल वृत्तियों, श्रद्धा, स्नेह, दया, परोपकार, नीतिमत्ता, सदाचार तथा धार्मिकता आदि को कुंठित कर दिया है। मानव के आध्यात्मिक और नैतिक जीवन का अवमूल्यन हो रहा है। ___ विज्ञान की बढ़ती हुई उद्यम शक्ति के कारण विश्व विनाश के कगार पर आ पहुँचा है। अणु आयुधों के कारण किसी भी क्षण विश्व का विनाश हो सकता है। ऐसी विषम परिस्थितियों में आशारूपी एक ही ऐसा दीप है जो दुनिया को प्रलय रूपी अंधकार में मार्ग दिखा सकेगा।