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कर्म भी अपने कर्ता का अनुगमन करके आगामी जन्म में उसके पास पहुँच जाता है। वर्तमान जन्म में किये हुए कर्म अपना फल देने के रूप में आगामी जन्म (पुनर्जन्म) में उसी आत्मा का अनुगमन करते हैं। ___ इस प्रकार पूर्वजन्म और पुनर्जन्म का सिलसिला तब तक चलता है, जब तक वह आत्मा (जीव) कर्मों का सर्वथा क्षय न कर डाले।१०४ मनुस्मृति में पुनर्जन्म के अस्तित्व की सिद्धि
मनुस्मृति में बताया गया है कि नवजात शिशु में जो भय, हर्ष, शोक, रुदन आदि क्रियाएँ होती हैं उनका इस जन्म में तो उसने बिल्कुल ही अनुभव नहीं किया। अत: मानना होगा कि ये सब क्रियाएँ उस शिशु के पूर्वजन्म कृत अभ्यास या अनुभव से ही संभव हैं। अत: उक्त पूर्वजन्मकृत अभ्यास की स्मृति से पुनर्जन्म की सिद्धि होती है।१०५ पूर्वजन्म के वैर विरोध की स्मृति से पुनर्जन्म की सिद्धि
__ जैन सिद्धांतानुसार नारक जीवों को अवधिज्ञान (मिथ्या हो या सम्यक्) जन्म से ही होता है। उसके प्रभाव से उन्हें पूर्वजन्म की स्मृति होती है। नारकीय जीव पूर्वभव के वैर विरोध आदि का स्मरण करके एक-दूसरे नारक को देखते ही कुत्तों की तरह परस्पर लडते हैं, एक-दूसरे पर झपटते और प्रहार करते हैं। एक दूसरे को काटते और नोचते हैं। इस प्रकार वे एक दूसरे को दुःखित करते हैं, और पूर्वभव में किए हुए वैर आदि का स्मरण करने से उनका वैर दृढतर हो जाता है। __नारकीय जीवों की पूर्वजन्म की स्मृति से पुनर्जन्म का अस्तित्व सिद्ध होता है।१०६ सर्वार्थसिद्धि१०७ टीका में भी यही बात बताई है। रागद्वेषात्मक प्रवृत्ति से पूर्वजन्म सिद्धि
प्राय: जीवों में पहले किसी के सिखाये बिना ही सांसारिक पदार्थों के प्रति स्वत: रागद्वेष, मोह, द्रोह, आसक्ति, घृणा आदि प्रवृत्तियाँ पाई जाती हैं। ये प्रवृत्तियाँ पूर्वजन्म में अभ्यस्त या प्रशिक्षित होगी, तभी इस जन्म में उनके संस्कार या स्मरण। इस जन्म में छोटे बच्चे में भी परिलक्षित होते हैं।१०८ वात्स्यायन में इस विषय पर विशद प्रकाश डाला गया है। आत्मा की नित्यता से पूर्वजन्म और पुनर्जन्म सिद्धि
शरीर की उत्पत्ति और विनाश के साथ आत्मा उत्पन्न और विनाश नहीं होता। आत्मा तो (कर्मवशात्) एक शरीर को छोडकर दूसरे नये शरीर को धारण करती है। यही पुनर्जन्म