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करते हुए कहते हैं- भिक्षुओ! इस प्रकार दीर्घकाल मेरा और तुम्हारा यह आवागमन-संसरण चार आर्य सत्यों के प्रतिवेध न होने से हो रहा है।८९ बौद्ध दर्शन के अनुसार इसका फलितार्थ यह है कि, पुनर्जन्म का मूल कारण अविद्या (जैनदृष्टि से भावकर्म) है। अविद्या के कारण संस्कार, संस्कार से विज्ञान उत्पन्न होता है। विज्ञान चित की यह भावधारा है जो पूर्व जन्म में कृत कुशल-अकुशल कर्मों के कारण होती है, जिसके कारण मनुष्य को आँख, कान आदि से संबंधित अनुभूति होती है।९० इस प्रकार बौद्ध धर्म दर्शन में भी कर्म और पुनर्जन्म का अटूट संबंध बताया है। - पुनर्जन्म का तात्पर्य बौद्ध धर्म में है। मात्र मनोकायिक प्रक्रिया जो मृत्यु के समय अस्तंगत हो जाती है और तुरंत फिर जारी हो जाती है- दर्पण में एक प्रतिकृति के समान अथवा किसी की आवाज की प्रतिध्वनि के समान वह चेतनता का पुनर्जन्म है, जिस तरह मुद्रा और दर्पण के संस्पर्श के माध्यम से मूर्ति दिखाई देती है। वह वर्तमान चेतनता का मात्र दूरगमन है जो आवान्तर जन्म से प्रवाहित रहता है।९१ न्याय वैशेषिक दर्शन में कर्म और पुनर्जन्म
नैयायिक और वैशेषिक दोनों आत्मा को नित्य मानते हैं। मिथ्याज्ञान से रागद्वेष आदि दोष उत्पन्न होते हैं। रागद्वेष आदि से धर्म और अधर्म, पुण्य और पाप कर्म की प्रवृत्ति होती है। इस प्रकार की प्रवृत्ति सुख दुःख को उत्पन्न करती है। न्यायसूत्र में इस तथ्य को स्पष्ट किया गया है कि मिथ्याज्ञान से रागद्वेषादि, प्रवृत्ति और रागद्वेषादि प्रवृत्ति के कारण जन्म
और जन्म से दुःख होता है।९२ न्यायदर्शन में भी यह बात बताई है।९३ जब तक धर्माधर्म प्रवृत्तिजन्य संस्कार बने रहेंगे, तब तक शुभाशुभ कर्मफल भोगने के लिए जन्ममरण का चक्र चलता रहेगा, जीव नये नये शरीर ग्रहण करता रहेगा। शरीर ग्रहण करने में प्रतिकूल वेदना होने के कारण दुःख का होना अनिवार्य है। इस प्रकार उत्तरोत्तर निरंतर अनुवर्तन होता रहता है। षड्दर्शन रहस्य में बताया है कि 'घडी की तरह सतत इनका अनुवर्तन होता रहता है। प्रवृत्ति ही पुन: आवृत्ति का कारण होती है'।९४ अद्दष्ट (कर्म) के साथ ही पूर्वजन्म-पुनर्जन्म का संबंध
वैशेषिक दर्शन में शुभ प्रवृत्ति जन्य अद्दष्ट को धर्म और अशुभप्रवृत्ति जन्य अद्दष्ट को अधर्म कहा गया है। धर्मरूप अद्दष्ट आत्मा में सुख पैदा करता है और अधर्मरूप अदृष्ट, दुःख। वस्तुत: अदृष्ट का कारण क्रिया (प्रवृत्ति) को नहीं, इच्छा द्वेष को माना गया है। इच्छा द्वेष सापेक्ष क्रिया ही अदृष्ट की उत्पादिका है।
इन सब युक्तियों से नित्य आत्मा के साथ कर्म और पुनर्जन्म-पूर्वजन्म का अविच्छिन्न प्रवाह सिद्ध होता है।९५