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________________ 90 ने अर्जुन को संबोधित करते हुए कहा है, 'हे अर्जुन! मेरे और तुम्हारे बहुत से जन्म व्यतीत हो चुके हैं, परंतु हे परंतप! मैं उन सब (जन्मों) को जानता हूँ, तुम नहीं जानते।'८० ____ एक जगह गीता में कहा गया है- 'जो ज्ञानवान होता है, वही बहुत से जन्मों के बाद मुझे प्राप्त करता है।८१ हे अर्जुन! जिस काल में शरीर त्याग कर गये हुए योगिजन वापस न आने वाली गति को, तथा वापस आनेवाली गति को प्राप्त होते हैं उस काल को मैं कहूँगा।८२ पूर्वजन्म और पुनर्जन्म को सिद्ध करते हुए गीता में कहा है 'वह उस विशाल स्वर्गलोक का उपभोग कर पुण्य क्षीण होने पर पुन: मृत्युलोक में प्रवेश पाता है। कर्म और पुनर्जन्म का सिद्धांत स्पष्ट करते हुए डॉ. पी. व्ही. काणे ने लिखा है कि बहुत व्यक्ति दुःखी क्यों हैं और बहुतों को अनपेक्षित सुख और आनंद क्यों मिल रहा है? यह असमानता देखकर हृदय कंपित हो जाता है, लेकिन कर्म सिद्धांत इन सभी तथ्यों को स्पष्ट करता है।८३ बौद्ध दर्शन में कर्म और पुनर्जन्म अनात्मवादी दर्शन होते हुए भी बौद्ध दर्शन ने कर्म और पुनर्जन्म के सिद्धांत का समर्थन किया है। पालि त्रिपिटक में बताया गया है- कर्म से विपाक (कर्मफल) प्राप्त होता है, इस प्रकार यह संसार (लोक) चलता है।८४ मज्झिमनिकाय में कहा गया है - कुशल (शुभ) कर्म सुगति का और अकुशल (अशुभ) कर्म दुर्गति का कारण होता है।८५ ___ बोधि प्राप्त करने के पश्चात् तथागत बुद्ध को अपने पूर्व जन्मों का स्मरण हुआ था। एक बार उनके पैर में काटा चुभ जाने पर उन्होंने अपने शिष्यों से कहा 'भिक्षुओ! इस जन्म से इकानवें जन्म पूर्व मेरी शक्ति (शस्त्र विशेष) से एक पुरुष की हत्या हो गई थी। उसी कर्म के कारण मेरा पैर कांटे से बिंधा गया है।८६ इस प्रकार बोधि के पश्चात् उन्होंने अपने-अपने कर्म से प्रेरित प्राणियों को विविध योनियों में गमनागमन (गति-अगति) करते हुए प्रत्यक्ष देखा था। उन्हें यह ज्ञान हो गया था कि अमुक प्राणी उसके अपने कर्मानुसार किस योनि में जन्मेगा? इस प्रकार का ज्ञान उनके लिए संवेध अनुभव था।८७ थेरीगाथा में यह बताया गया है कि तथागत बुद्ध के कई शिष्य-शिष्याओं को अपनेअपने पूर्वजन्मों और पुनर्जन्म का ज्ञान था। ऋषिदासी भिक्षुणी ने थेरीगाथा में अपने पूर्वजन्म और पुनर्जन्म का मार्मिक वर्णन किया है।८८ दीघनिकाय में तथागत बुद्ध अपने शिष्यों से पूर्वजन्म और पुनर्जन्म का रहस्योद्घाटन
SR No.002299
Book TitleJain Darm Me Karmsiddhant Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhaktisheelashreeji
PublisherSanskrit Prakrit Bhasha Bhasha Vibhag
Publication Year2009
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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