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नियुक्तियों की तरह भाष्यों की रचना भी प्राकृत गाथाओं में संक्षिप्त शैलीमें हुई है। उनमें भी मुख्यरुपसे अर्धमागधी का प्रयोग हुआ है। कतिपय स्थानोंपर मागधी और शौरसेनी का भी प्रयोग दृष्टिगोचर होता है । भाष्योंकी रचना का समय सामान्यत: लगभग चौथी - पाँचवी शताब्दि माना जाता है।
भाष्य साहित्यमें विशेषत: निशीथ भाष्य, व्यवहार भाष्य तथा बृहत्कल्पाभाष्य का स्थान अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। भाष्यमें अनेक प्राचीन अनुस्तृतियाँ - सुनी हुई बातें, लौकिक कथायें तथा साधुओके परंपरागत प्राचीन आचार, विचार आदि की विधियोंका विवेचन हैं । जैन साधु संघके प्राचीन इतिहास को भलिभाँति जानने के लिये भाष्योंका अध्ययन अत्यंत आवश्यक हैं।
__ संघदास गणि क्षमा श्रमणने कल्प, व्यवहार और निशीथ भाष्योंकी रचना की ऐसा प्रसिद्ध है। ये आचार्य हरिभद्रसूरि के समकालीन थे। चूर्णि:
नियुक्तियों और भाष्योके पश्चात चूर्णियों की रचना की। केवल अंग आगमों परही नहीं किंतु उपांग, मूलादि अन्य आगमों पर भी टीकाओं की रचना होती रही जिनमें से बहुत सी आज हमें प्राप्त हैं । धन्य है ये आचार्य जिन्होने ज्ञानाराधना का बहुत बड़ा कार्य किया तथा लोगोंपर अत्यधिक उपकार किया। टब्बा :
संस्कृत टीकाओं के बाद व्याख्या का एक और रुप प्रकाशमें आया, उसे टब्बा कहा जाता है । गुजराती एवं राजस्थानी भाषाओंमें आगमों पर टब्बों की रचनायें हुई । गुजरात राजस्थानमें जैन धर्म बहुत फैला हुआ था। आज भी है।
टब्बा संभवत: संस्कृतके 'स्तब्ध' शब्द से बना है। स्तब्ध का अर्थ घेरा हुआ, रोका हुआ, अवरुद्ध किया हुआ होता है। टब्बा मूल आगम के शब्दको अर्थद्वारा घेरे रहता है। अत: शाब्दिक दृष्टि से यह शब्द सार्थकता लिये हुए हैं।
टब्बा का तात्पर्य - आगम के शब्दों का बहुत ही सरल रुपमें अर्थ देना है। जिन जिन शब्दोंका अर्थ किया जाता , उनके नीचे उसके टब्बे लिख दिये जाते हैं। साधारण लोग इन टब्बों की सहायता से आगमों का आशय या भाव बड़ी सुगमता से समझ लेते। समीक्षा:
इतना विशाल व्याख्या साहित्य लिखे जाने का अभिप्राय यह है कि जैन तत्वज्ञान और आचार विधाओके अध्ययन में साधुओके साथ - साथ गृहस्थों की भी अभिरुचि रही है
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