SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 72
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ गच्छाचार और कहीं मरण - समाधि का उल्लेख करते है।७५ जैन पारिभाषिक दृष्टि से प्रकीर्णक उन ग्रंथों को कहा जाता है जो तीर्थंकरों के शिष्य उद्बुद्धचेता श्रमणों द्वारा आध्यात्म सम्बद्ध विविध विषयों पर रचे जाते रहें है। ऐसा कहा जात है कि जिन - जिन तीर्थंकरों को औत्पातिकी, वैनयिकी, कार्मिकी तथा परिणामिकी - इन चार प्रकार की बुद्धि से युक्त जितने भी शिष्य होते है, उनके भी उतने ही प्रकीर्णक ग्रंथ होते हैं। प्रत्येक बुद्ध प्रव्रज्या देने वाले की दृष्टि से किसी के शिष्य नहीं होते पर तीर्थकर द्वारा उपदिष्ट धर्मशासन की प्ररुपणा करने की अपेक्षा से अथवा उनके शासन के अन्तवर्ति होने से वे औपचारिकता से तीर्थकरों के शिष्य कहे जा सकते हैं अत: प्रत्येक बुद्धो द्वारा प्रकीर्णक की रचना करना युक्ति संगत है। ___वर्तमान के मान्य दस प्रकीर्णको में से एक - एक का संक्षिप्त परिचय यहाँ किया जा रहा है - १) चउसरण - चतुःशरण, प्रकीर्णक जैन परंपरा में अरिहंत, सिद्ध, साधु और सर्वज्ञ प्ररुपित धर्म को शरणभूत माना गया है । इन्हीं चार शरण के आधार पर इस प्रकीर्णक का नाम चतु:शरण रखा गया।७६ इस प्रकीर्णक के आरंभ में षडावश्यक पर प्रकाश डाला गया है उसमें लिखा है - १) सामायिक आवश्यक से चरित्र की शुद्धि होती है। २) चतुर्विशति जिनस्तवन से दर्शन की विशुद्धि होती है। ३) वंदना से ज्ञान में निर्मलता आती है। ४) प्रतिक्रमण से ज्ञान आदि रत्नत्रय की विशुद्धि होती है। ५) कार्योत्सर्ग से तप की शुद्धि होती है और प्रतिक्रमण से चारित्र की शुद्धि न हुई हो उसकी शुद्धि कायोत्सर्ग से होती है। ६) पच्चक्खाण से वीर्य की विशुद्धि होती है। तदनन्तर स्वप्न जो तीर्थंकर की माता देखती है उसका उल्लेख करके महावीर स्वामी को वंदन करके चार शरण का विस्तृत विवेचन किया गया है जिसमें अरिहंत, सिद्ध, साधु और धर्म की महत्ता बताकर उसका गुण कीर्तन कर, पूर्व किये पापों की निंदा और सुकृत्य का अनुमोदन किया है। (४१)
SR No.002297
Book TitleJain Dharm ke Navkar Mantra me Namo Loe Savva Sahunam Is Pad ka Samikshatmak Samalochan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorCharitrasheelashreeji
PublisherSanskrit Bhasha Vibhag
Publication Year2006
Total Pages350
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy