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मानव जीवन और धर्म
संसार के सभी प्राणियोंमे शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक एवं अध्यात्मिक दृष्टि से मानव का सर्व श्रेष्ठ स्थान है। मानव ही एक ऐसा मननशील प्राणी है, जो अपने हित अहित का यथावत रूपमें चिंतन करने में और उसके अनुसार क्रियाशील होने में सक्षम है। इसलिये मानव जीवन को बड़ा दुर्लभ और मूल्यवान माना गया है। इसी जीवनमें मनुष्य यदि सन्मार्ग का अवलंबन कर कार्यशील रहे तो वह उन्नतिके चरम शिखर पर पहुँच सकता है।
जीवन की परिभाषा
शरीर और आत्माका साहचर्य या सहवर्तीत्व जीवन है, जो पूर्वाचरित कर्मो पर आधारित है। कर्मों का आत्मा के साथ अनादि काल से संबंध चला आ रहा है।
जब तक सत्यका यथार्थ बोध नहीं होता तब तक मनुष्य की दृष्टि शरीर पर रहती है, आत्मा पर नहीं। शारीरिक सुख, सुविधा, भोग, उपभोग आदि पदार्थों में उसका मन ग्रस्त रहता है। जिससे इनकी प्राप्ति हो उसीको वह संग्रहित करने में उन्मत्त की तरह दौड़ता रहता है। भौतिक सुख सुविधायें प्राप्त करने का साधन धन है। धन एक ऐसा पदार्थ है, वह ज्यों ज्यों प्राप्त होता है, त्यों त्यों प्राप्त करनेवाले की इच्छायें उत्तरोत्तर बढ़ती जाती है -
_ "इच्छा हु आगाससमा अणन्तिया।"
इच्छायें आकाश के समान अनंत होती है। भौतिक सुखोंमें विभ्रांत मानव उन्हें पाने के लिये चिरकालसे दौड़ रहा है, पर वास्तविकता यह है कि - जिन्हें वह सुख मानता है, वे नश्वर है। इतना ही नहीं वे दु:खों के रूपमें परिणत हो जाते हैं। जिस शरीर के प्रति उसे अत्यधिक ममत्व है वह भी जीर्ण-शीर्ण, व्याधि ग्रस्त हो जाता है और एक दिन वह चला जाता है। यही बात परिवार पर और धन संपत्ति पर भी लागू होती हैं। ये सभी पदार्थ क्षणभंगूर है। परिवर्तनशील हैं। जिन भोगों को भोगने में मानव सुख मानता है, वे भोग रोगों के कारण बन जाते है।
_ “खणमित्त सोक्खा बहुकाल दुक्खा।” वे क्षणिक सुख चिरकाल तक दुख देनेवाले होते हैं।२