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समाधिमरण या सल्लेखना
यदि उपसर्ग, दुर्भिक्ष, बुढ़ापा और भयंकर बीमारी का प्रतिकार संभव हो, इलाज संभव हो तो सबसे पहले प्रतिकार करना चाहिये, इलाज करना चाहिये, उपाय करना चाहिये। ___ यदि कोई भी अहिंसक एवं निरापद उपाय शेष न रहा हो तो जिनागम में निरूपित विधि से समाधि ले लेना चाहिये। ___ ध्यान रहे जिसप्रकार उक्त परिस्थिति में भी सल्लेखना नहीं लेना उचित नहीं है; उसीप्रकार प्रतिकार संभव होने पर भी सल्लेखना ले लेना ठीक नहीं है; एकप्रकार से वह उससे भी बड़ा अपराध है; क्योंकि उसमें आत्मघात संबंधी दोष लगेगा। - यहाँ एक प्रश्न संभव है कि यह तो एक प्रकार से आत्महत्या ही
हुई। आत्महत्या परजीवों की हत्या से भी बड़ा पाप है। • उत्तर - सल्लेखना या समाधिमरण आत्महत्या नहीं है; क्योंकि आत्महत्या तो अत्यन्त तीव्रकषाय के आवेग में की जाती है; पर इसमें तो बहुत सोच-समझकर विवेकपूर्वक कषायों को मन्द करते हुये शरीर को कृष किया जाता है। वह भी तब, जबकि जीवित रहने का कोई उपाय शेष न रहे।
जहाँ तक हमारे व्रतों की मर्यादा के भीतर उपचार संभव है, इलाज संभव है; वहाँ तक सल्लेखना लेने का अधिकार ही नहीं है।
मृत्यु की अनिवार्य उपस्थिति में अत्यन्त समताभाव पूर्वक योग्य गुरु के मार्गदर्शन में प्राणों का विधिपूर्वक उत्सर्ग (त्याग) कर देना ही समाधिमरण है, सल्लेखना है।
देह का त्याग कर देना है अर्थात् देह के सहज होते हुये वियोग को वीतरागभाव से देखते-जानते रहना है। देह का त्याग करने के लिये कुछ करना नहीं है; शान्तभाव से ज्ञाता-दृष्टा बने रहना ही है।
देह का परिवर्तन तो होना ही है। यह एक सार्वभौमिक एवं सार्वकालिक सत्य है । इस सत्य को स्वीकार कर देह हमें छोड़े - इसके