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आगम के आलोक में - चाहे स्व का परिणमन हो, चाहे पर का; जगत के सम्पूर्ण परिणमन के प्रति समताभाव रहना ही समाधि है । स्व-पर के सम्पूर्ण परिणमन में इष्ट-अनिष्टबुद्धि नहीं होना ही समाधि है। जो हो रहा है, वह हो रहा है; उसमें यह हो और यह न हो; इसप्रकार की काँक्षा एक प्रकार से निदान ही है। निदान एक शल्य है, आर्तध्यान है। उसके रहते समाधि कैसे हो सकती है?
समाधि के साथ होने वाले मरण को समाधिमरण कहते हैं। इसी समाधिमरण का दूसरा नाम सल्लेखना है।
मरणान्त समय में होनेवाली इस सल्लेखना के सम्बन्ध में रत्नकरण्डश्रावकाचार के सल्लेखना नामक (छठवें) अधिकार में आचार्य समन्तभद्र लिखते हैं
"उपसर्गे दुर्भिक्षे जरसि रुजायां च निःप्रतीकारे। __ धर्माय तनु विमोचनमाहुः सल्लेखनामार्या ।।' जिनका प्रतिकार संभव न हो; ऐसे उपसर्ग में, दुर्भिक्ष में, बुढ़ापे में और रोग की स्थिति में धर्म की रक्षा के लिये शरीर का त्याग कर देने को आर्यगण सल्लेखना कहते हैं, समाधिमरण कहते हैं। ___ तात्पर्य यह है कि ऐसा उपसर्ग आ जाय कि मृत्यु सन्निकट हो, उससे बचने का कोई उचित मार्ग न रह गया हो; ऐसा दुर्भिक्ष (अकाल) आ पड़े कि जब शुद्ध सात्विक विधि से जीवन निर्वाह संभव न रहे; ऐसा बुढ़ापा आ जाय कि अहिंसक विधि से जीवित रहना संभव न रहा हो; ऐसी बीमारी आ जाय कि अहिंसक विधि से जिसका उपचार (इलाज) संभव न रहे; ऐसी स्थिति में अपने धर्म की रक्षा के लिये शास्त्रविहित विधिपूर्वक शरीर का त्याग कर देने को सज्जन पुरुष, ज्ञानीजन, समाधिमरण या सल्लेखना कहते हैं। १. रत्नकरण्डश्रावकाचार, श्लोक १२२