SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 54
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५२ आगम के आलोक में - इस असमानजातीयमनुष्यपर्याय में से अनन्त परमाणुओं का बिखर जाना और आत्मा का पृथक् हो जाना ही मरण है । मरण में बिखरे तो वे पौद्गलिक परमाणुओं के शरीररूप स्कन्ध ही है। मैं तो अभी भी वैसा ही हूँ, जैसा पहले था। मेरा क्या होना था ? समाधिमरण की असली तैयारी तो उस भगवान आत्मा की अमरता का चिन्तन-मनन है; जो मैं स्वयं हूँ । आत्मा के असंख्य प्रदेश और अनन्त गुण तो कभी बिखरते ही नहीं। रही पर्याय के बदलने की बात । सो पर्याय का तो स्वभाव ही बदलना है । यदि वह बदले नहीं तो पर्याय ही नहीं हो सकती; क्योंकि बदलना ही उसका जीवन है । I बहते जल का नाम ही नदी है। यदि जल का बहना बन्द हो जाय तो फिर वह नदी नहीं रहेगी; और चाहे जो कुछ हो, पर नदी नहीं रह सकती। सागर हो, तालाब हो, झील हो, कुआँ - बावड़ी हो; कुछ भी हो, पर नदी नहीं । इसीप्रकार यदि बदले नहीं तो वह पर्याय नहीं हो सकती। और चाहे जो कुछ भी हो, पर पर्याय नहीं हो सकती; क्योंकि पलटने का नाम ही पर्याय है, परिवर्तनशील होना पर्याय का धर्म है; अतः पर्याय में तो परिवर्तन होगा ही। यह मनुष्यपर्याय भी पर्याय है; अतः यह तो पलटेगी ही । इसको पलटने से रोकना संभव नहीं है। यदि दुखरूप पर्याय पलटेगी नहीं तो सुखरूप पर्याय कैसे आयेगी? यदि मोक्षपर्याय को आना है तो संसार पर्याय तो पलटना ही होगा, जाना ही होगा, नष्ट होना ही होगा । मृत्यु भी पर्याय का पलटना ही है। इस पलटन को सहज भाव से स्वीकार करना ही सल्लेखना है, समाधिमरण है, संथारा है; जो जीवन के अन्त समय में अनिवार्य है, अति आवश्यक है ।
SR No.002296
Book TitleSamadhimaran Ya Sallekhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherPandit Todarmal Smarak Trust
Publication Year2015
Total Pages68
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy