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प्रकाशकीय (तृतीय संस्करण)
अ.भा. दि. जैन विद्वत्परिषद् के राष्ट्रीय अध्यक्ष डॉ. हुकमचन्दजी भारिल्ल की महत्वपूर्ण कृति ‘समाधिमरण या सल्लेखना' का मात्र २० दिन में २५ हजार का प्रथम संस्करण हाथोंहाथ समाप्त हो जाना इसकी लोकप्रियता को दर्शाता है। ५ हजार का द्वितीय संस्करण ५ सितम्बर को प्रकाशित हुआ और डेढ़ माह की अवधि में समाप्त हो गया। अब यह ५ हजार का तृतीय संस्करण प्रस्तुत है ।
डॉ. भारिल्ल अपने प्रवचनों में समय-समय पर समाधिमरण और सल्लेखना के संबंध में अपने क्रान्तिकारी विचार प्रगट करते रहे हैं। यह भी कहते रहे हैं कि मैं सल्लेखना के सन्दर्भ में एक पुस्तक लिखना चाहता हूँ। मुमुक्षुभाई भी उनसे इसप्रकार की पुस्तक जल्दी से जल्दी लिखने का अनुरोध करते रहे हैं। पर बात टलती रही। किसी ने ठीक ही कहा है कि समय के पहले कोई काम नहीं होता । प्रत्येक कार्य स्वकाल में ही होता है।
लगता है सल्लेखना पर लिखने का स्वकाल आ गया है । प्रस्तुत कृति प्रकाशन के लिये प्रेस में दी जा चुकी थी, छपकर तैयार थी कि इसी बीच 10 अगस्त 2015 को हाईकोर्ट का आदेश सल्लेखना - संथारा के विरोध में आ गया ।
उक्त संदर्भ में इस ज्वलन्त समस्या पर प्रखर पत्रकार एवं समन्वयवाणी के सम्पादक श्री अखिल बंसल ने डॉ. भारिल्ल से एक साक्षात्कार (इन्टरव्यू) लिया जिसे भी पुस्तक के अन्त में समाहित किया गया है। उक्त साक्षात्कार से विषय का स्पष्टीकरण स्वतः हो जाता है ।
यह एक क्रान्तिकारी कृति है; जिसे प्रकाशित करने का अवसर हमें प्राप्त हुआ है। प्रकाशन के पूर्व मैंने इसका गहराई से अध्ययन किया है I
इस कृति में ऐसे अनेक तथ्य उजागर हुये हैं, जो आपके ध्यान में अब तक नहीं होंगे। यद्यपि वे सभी रहस्य जिनागम में विद्यमान हैं, पर हमारे ध्यान में नहीं आये थे। यह कृति उक्त तथ्यों की ओर आपका ध्यान आकर्षित करेगी ।
.इस क्रान्तिकारी कृति की रचना के लिये डॉ. भारिल्ल को, प्रकाशन व्यवस्था के लिये अखिल बसंल को और कम्पोजिंग के लिये कैलाशचन्द्र शर्मा को हार्दिक धन्यवाद ।
प्रकाशन व्यवस्था और कीमत कम करने वालों की लिस्ट यथास्थान दी गई है । उनके उदार सहयोग के लिये धन्यवाद । 20 अक्टूबर, 2015 ई.
- ब्र. यशपाल जैन, एम.ए. प्रकाशन मंत्री