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________________ ३६ आगम के आलोक में - गोम्मटसार कर्मकाण्ड में सिद्धान्तचक्रवर्ती आचार्यश्री नेमिचन्द्र भक्तप्रत्याख्यान सल्लेखना का काल परिमाण बताते हुये लिखते हैं - "भत्तपइण्णाइ-विहि, जहण्णमंतोमुहत्तयं होदि। वारिसवरिसा जेट्ठा, तम्मज्झे होदि मज्झिमया॥ भक्त माने भोजन और प्रत्याख्यान माने त्याग । भक्तप्रत्याख्यान की प्रतिज्ञा करके जो संन्यासमरण (सल्लेखना) होता है; उसका जघन्य कालप्रमाण अन्तर्मुहूर्त मात्र है एवं उत्कृष्ट कालप्रमाण बारह वर्ष है। तथा अन्तर्मुहर्त से लेकर बारह वर्ष पर्यंत जितने भी समयभेद हैं, वे सब सल्लेखना के मध्यमकाल के भेद जानने चाहिए।" रत्नकरण्डश्रावकाचार पर वचनिका लिखने वाले विद्वान पंडित सदासुखदासजी अत्यन्त निर्मल परिणाम वाले सच्चे आत्मार्थी विद्वान थे। वे सल्लेखना के स्वरूप पर विचार करते हुये सल्लेखना के दो भेद करते हैं - १. काय सल्लेखना और २. कषाय सल्लेखना। काय सल्लेखना काय सल्लेखना का स्वरूप स्पष्ट करते हुये पण्डित सदासुखदासजी लिखते हैं - “अपनी आयु का शेष समय देखकर उसी के अनुसार देह से इंद्रियों से ममत्व रहित होकर आहार के स्वाद से विरक्त होकर क्रमशः काय सल्लेखना करता हुआ विचार करे - ___ हे आत्मन्! संसार परिभ्रमण करते हुए तूने इतना आहार किया है कि यदि एक-एक जन्म का एक-एक कण एकत्र करें तो अनन्त सुमेरु के बराबर हो जायें; तथा अनन्त जन्मों में इतना जल पिया है कि १. आचार्य नेमिचन्द्र : गोम्मटसार कर्मकाण्ड, गाथा ६०
SR No.002296
Book TitleSamadhimaran Ya Sallekhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherPandit Todarmal Smarak Trust
Publication Year2015
Total Pages68
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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