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________________ आगम के आलोक में - देखो! इस अद्भुत चैतन्य स्वरूप की महिमा! उसके ज्ञानस्वभाव में समस्त ज्ञेय पदार्थ स्वयमेव झलकते हैं; किन्तु वह स्वयं ज्ञेयरूप नहीं परिणमता है और उस झलकने में (जानने में) विकल्प का अंश भी नहीं है। इसलिये उसके निर्विकल्प, अतीन्द्रिय, अनुपम, बाधा रहित और अखण्ड सुख उत्पन्न होता है। ऐसा सुख संसार में नहीं है, संसार में तो दुःख ही है; अज्ञानी जीव इस दुःख में भी सुख का अनुमान करते हैं, किन्तु वह सच्चा सुख नहीं है। ___ 'चैतन्यरूप कैसा है?' वह आकाश के समान निर्मल है, आकाश में किसी प्रकार का विकार नहीं है। बिल्कुल वह स्वच्छ निर्मल है। यदि कोई आकाश को तलवार से तोड़ना, काटना चाहे या अग्नि से जलाना चाहे या पानी से गलाना चाहे तो वह आकाश कैसे तोड़ा, काटा जावे या जले या गले? उसका बिल्कुल नाश नहीं हो सकता। यदि कोई आकाश को पकड़ना या तोड़ना चाहे तो वह पकड़ा या तोड़ा नहीं जा सकता। वैसे ही मैं भी आकाश की तरह अमूर्तिक, निर्विकार, पूर्ण निर्मलता का पिण्ड हूँ। मेरा नाश किस प्रकार हो? किसी भी प्रकार से नहीं हो, यह नियम है। यदि आकाश का नाश हो तो मेरा भी हो, ऐसा जानना। किन्तु आकाश के और मेरे स्वभाव में इतना विशेष अन्तर है कि आकाश तो जड़ अमूर्तिक पदार्थ है और मैं चैतन्य अमूर्तिक पदार्थ हूँ। मैं चैतन्य हूँ, इसीलिए ऐसा विचार करता हूँ कि आकाश जड़ है और मैं चैतन्य । मेरे द्वारा जानना प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर होता है और आकाश नहीं जानता है। ___'मैं कैसा हूँ।' मैं दर्पण की तरह स्वच्छ (स्वच्छत्व) शक्ति का ही पिण्ड हूँ। दर्पण की स्वच्छ शक्ति में घट-पटादि पदार्थ स्वयमेव ही १. मृत्यु महोत्सव, पृष्ठ-७७
SR No.002296
Book TitleSamadhimaran Ya Sallekhana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherPandit Todarmal Smarak Trust
Publication Year2015
Total Pages68
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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