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समाधिमरण या सल्लेखना
इसप्रकार यह दीक्षार्थी आत्मा, माता-पिता आदि बड़े-बूढ़ों से और स्त्री-पुत्रादि से स्वयं को छुड़ाता है।" ___ इतना विशेष है कि प्रवचनसार में मुनिदीक्षा लेनेवाला अपने परिजनों से विदा लेता है और पण्डित गुमानीरामजी के मृत्यु महोत्सव में सल्लेखना लेने वाला अपने परिजनों से स्वयं को छुड़ाता है।
पण्डित गुमानीरामजी भी माता-पिता, स्त्री-पुत्रादि को इसीप्रकार संबोधित करते हैं; जो मूलतः पठनीय है।
उक्त मृत्यु महोत्सव के कतिपय महत्त्वपूर्ण अंश इसप्रकार हैं -
"समाधि नाम निःकषाय का है, शान्त परिणामों का है, कषाय रहित शांत परिणामों से मरण होना समाधिमरण है। ___ वह (सम्यग्दृष्टि) अपने निज स्वरूप को वीतराग ज्ञाता-दृष्टा, पर द्रव्य से भिन्न, शाश्वत और अविनाशी जानता है और परद्रव्य को क्षणभंगुर, अशाश्वत, अपने स्वभाव से भलीभाँति भिन्न जानता है। इसलिये सम्यक्ज्ञानी मरण से कैसे डरें? वह ज्ञानी पुरुष मरण के समय इसप्रकार की भावना व विचार करता है -
मुझे ऐसे चिन्ह दिखाई देने लगे हैं जिनसे मालूम होता है कि अब इस शरीर की आयु थोड़ी है, इसलिये मुझे सावधान होना उचित है, इसमें (देर) विलम्ब करना उचित नहीं है। ___ अब इसके नाश का समय आ गया है। इस शरीर की आयु तुच्छ रह गई है और उसमें भी प्रति समय क्षण-क्षण कम हुआ जाता है; किन्तु मैं ज्ञाता दृष्टा हुआ इसके (शरीर का) नाश को देख रहा हूँ।
मैं इसका पड़ौसी हूँन कि कर्ता या स्वामी । मैं देखता हूँ कि इस शरीर की आयु कैसे पूर्ण होती है और कैसे इसका (शरीर का) नाश होता है, यहाँ मैं तमाशगीर की तरह देख रहा हूँ। १. प्रवचनसार, गाथा २०२ और टीका २. मृत्यु महोत्सव, पृष्ठ-७३