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६. किसी भय या लोभ के प्रभाव से न्यायाधीश को अपने न्याय मार्ग से विचलित न किया जा सके।
७. न्यायाधीश चरित्रवान व नीतिवान हो, जिसे किसी भी प्रकार से न्याय के मार्ग से विचलित न किया जा सके।
अपनी दार्शनिक मान्यताओं के बारे में निर्णय करवाने के लिए विज्ञान की शरण में जाने से पहिले क्या यह सुनिश्चित कर लेना आवश्यक नहीं कि क्या विज्ञान व वैज्ञानिक उक्त कसौटियों पर खरे उतरते हैं ?
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आज विज्ञान का अध्ययन या शोध - खोज कोई स्वयं के सुख लिए (स्वान्तः सुखाय) या परोपकार के लिए किया गया कार्य नहीं है, वरन् यह व्यक्तियों व सरकारों द्वारा शुद्ध आर्थिक व राजनैतिक फायदों के लिए अध्ययन है और इसलिए विज्ञान की शोध-खोज के नाम पर जो तथ्य हमारे सामने आते हैं; वे सदा ही शुद्ध (सत्य) नहीं, रंजित हुआ करते हैं।
वे तथ्य शोधकर्ता व्यक्तियों व देशों के आर्थिक व राजनैतिक फायदेनुकसान के अनुसार तोड़-मरोड़ कर प्रस्तुत किये जाते हैं; क्योंकि वे शोध-खोज अभियान किसी कम्पनी या सरकार के खर्च पर, उनके हित के लिए चलाये जाते हैं; शोधकर्ता उन कम्पनियों व सरकारों के आर्थिक व राजनैतिक दबाबों में रहकर कार्य करते हैं।
यूं भी वैज्ञानिक लोग कोई सन्त नहीं हैं, वे अपने-पराये या हानिलाभ की भावना से परे नहीं हैं; अतः हम उनकी बातों में आकर अपनी 'आत्मा' को तो दाव पर नहीं लगा सकते हैं न ?
यूं भी बड़े-बड़े वैज्ञानिकों या अन्य क्षेत्रों के विशेषज्ञों को, जो अपनी-अपनी विद्या में अत्यन्त आधुनिक सोच रखते हैं व प्रगतिशील होते हैं, धार्मिक या आस्था संबंधी अन्य मामलों में पुरातन मान्यताओं की चौखट पर ही माथा टेकते देखा जा सकता है। वे अपने तथाकथित विज्ञान के अलावा अन्य सभी मामलों में पुरातनपंथी ही रहते हैं । क्या मृत्यु महोत्सव अभिशाप है ? /५०