________________
अब हम घर-परिवार, समाज व देश के लिए सम्पदा न रहकर दायित्व (Liability) बनने लगते हैं, क्योंकि अब हम उत्पादक (Producer) नहीं रहते, मात्र उपभोक्ता (Consumer) बन जाते हैं। उपभोक्ता भी मात्र वस्तुओं के नहीं, समय व ध्यान (Attaintion) के भी, और किसके पास समय है जो ऐसे अनुपयोगी लोगों के पीछे बर्बाद कर सके, और फिर उस श्रम का कोई भी रिटर्न भी तो नहीं है।
अब अगर इसप्रकार के जीवन का यह क्रम थोड़ा और लम्बा खिंच जावे तो हमारी मौत जो अबतक 'अनपेक्षित' से 'अपेक्षित' और फिर उसके बाद 'चाहत' बन चुकी थी, अब 'मुराद' बनने लगती है, साध बन जाती है व यदा-कदा प्रसंगवश अपने ही परिजनों के बीच वाणी में भी प्रकट होने लगती है । 'न मरे न माँचा छोड़े' इसीतरह के अन्य कई मुहावरे हमने समय-समय पर सुने ही होंगे।
इसप्रकार अब हम मर-मर कर जीने लगते हैं और इस पर भी अगर मौत हम पर अब भी कृपावंत नहीं हुई तो अब हमारी मृत्यु एक आवश्यकता बन जाती है, एक ज्वलंत आवश्यकता और यह ज्वलंत आवश्यकता की आग मात्र एक ओर नहीं रहती, दोनों ओर प्रज्वलित होती है, अब हम स्वयं भी मरना चाहते हैं व अन्य लोग भी हमसे ऐसी ही अपेक्षा रखते हैं।
यद्यपि ज्यों-ज्यों सभ्यता का विकास होता गया, त्यों-त्यों हम सभी अपने-अपने मनोभावों को छुपाने की कला में पारंगत होते चले गए; तथापि हमारी इसतरह की भावनाओं की अभिव्यक्ति के प्रसंग उपस्थित होते ही रहते हैं, और तो और कालान्तर में परिजन ही नहीं मित्र व समाज के लोग भी इसतरह की भावनाओं को अभिव्यक्ति प्रदान करने लग जाते हैं; आखिर उन्हें भी तो देश व समाज की चिन्ता है, बढ़ती हुई आबादी की व संसाधनों के अभाव की फिक्र है।
कभी-कभी तो अनचाहे, अनजाने, अनायास ही कुछ इसप्रकार के क्या मृत्यु महोत्सव अभिशाप है ? / २९