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दिन लोग जश्न मनाते हैं या क्रन्दन (रोते) करते हैं?
इसी परिप्रेक्ष्य (सन्दर्भ) में हम मृत्यु को देखें । मृत्यु आखिर है क्या ? मृत्यु में कुछ नष्ट नहीं होता; मात्र परिवर्तन होता है; अवस्था का परिवर्तन; शरीर का परिवर्तन; हम पुरानी जीर्ण, जर्जर देह छोड़कर, नई देह धारण करते हैं, इसमें मातम कैसा ?
शाश्वत आत्मा अर्थात् कभी नष्ट न होने वाला आत्मा मृत्यु व जन्म के माध्यम से अपना चोला बदलता है, शरीर बदलता है, देह का परिवर्तन करता है; ठीक उसीप्रकार जिसप्रकार हम कपड़े बदलते हैं।
यहाँ ध्यान देने योग्य बात यह है कि देह परिवर्तन की यह प्रक्रिया सिर्फ मृत्यु के द्वारा सम्पन्न नहीं होती, वरन् मृत्यु व जन्म दोनों घटनाओं की एक मिली-जुली प्रक्रिया है। जीव एक स्थान पर मृत्यु को प्राप्त होता है व अगले ही क्षण दूसरे स्थान पर जन्म लेता है, एक देह छोड़ता है व दूसरी धारण करता है। इसप्रकार मृत्यु सम्पूर्ण घटनाक्रम का मात्र एक पहलू है, मृत्यु अपने आप में सम्पूर्ण घटनाक्रम नहीं है। फिर भी हम जन्म को आनन्द का विषय मानते हैं तो मृत्यु को शोक का ।
जब जन्म और मृत्यु एक ही घटना के दो पहलू हैं तो फिर एक को आनन्द और दूसरे को शोक के रूप में कैसे देख सकते हैं ?
दरअसल इस पूरे घटनाक्रम का कार्यक्षेत्र बहुत बड़ा है, पूरा लोकाकाश। इस ब्रह्माण्ड में जहाँ-जहाँ जीव जा सकते हैं, उसे लोकाकाश कहते हैं। जीव इस लोक के एक स्थान पर मृत्यु को प्राप्त होता है और वहाँ से कहीं दूर जन्म लेता है। हालाँकि यह सम्पूर्ण घटनाक्रम कुछ ही पलों में घटित हो जाता है; तथापि क्षेत्र की दूरी व अज्ञान के कारण मृत्यु व जन्म की घटनाओं से सम्बन्धित दोनों समूह एक दूसरे से अलगअलग बने रहते हैं, अनजान बने रहते हैं व एक दूसरे के गम व खुशी के दो तीव्रतम व परस्पर विरोधी अहसासों के सहभागी नहीं बनते।
यूँ तो मृत्यु को प्राप्त आत्मा हमारा सम्बन्धी था व अब उसने जहाँ क्या मृत्यु महोत्सव अभिशाप है १/१२