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________________ खाने और व्यवहार निभाने के इन्तजामों में ही व्यस्त हो जावे व डॉक्टर से सम्पर्क करने का उसे अवकाश ही न मिले। जिसने अपने रोग को पहिचाना है व उस रोग के परिणामों को जाना है; उसकी इसप्रकार की प्रवृत्ति सम्भव ही नहीं है। पर यदि ऐसा अवसर पाकर भी यदि हम इस भवभ्रमण से छूटने मात्र के उपाय में इस जीवन को समर्पित नहीं कर देते तो इसका मतलब है कि भवभ्रमण के दुःखों की भयानकता से हम परिचित ही नहीं हैं, हमें भवों के दु:खों की न तो स्मृति ही है और न ही परिकल्पना व तत्संबंधी आचार्यों व मनीषियों के वचनों का भी हमें भरोसा नहीं है। प्राणघातक केन्सर से प्राणों की रक्षा के लिए समर्पित हो गया मरीज अब बनाव श्रृंगारादिक में रत नहीं रहता। शृंगारादिक में रत रहने की तो बात ही क्या, उस ओर उसका ध्यान भी नहीं जाता। श्रृंगारादिक तो दूर वस्त्रादिक से भी अलिप्त हो जाता है। बाजार जाकर नवीनतम चलन के वस्त्रों के चुनाव की तो बात क्या; पर स्वयं के पास उपलब्ध वस्त्रों को भी ठीकप्रकार से पहिनने की रुचि नहीं रहती, सामान्यजनों को प्रथम निगाह में ऊंटपटांग से लगने वाले ढीले-ढाले बेडौल से वस्त्र बस यूं ही शरीर पर डाल भर लेता है; डाल भी क्या लेता है, यदि साथी-सहचर बलात् ही न डाल दें तो शायद........... ___ वस्त्र तो वस्त्र भोजनादिक की भी रुचि कहाँ रहती है ? रुचि न रहना एक बात है व अरुचि हो जाना दूसरी। उसे तो भोजन ग्रहण के प्रति अरुचि हो जाती है। स्वयं भोजन ग्रहण का तो भाव ही नहीं आता है, अन्य सामान्य लोगों के मनाने पर भी भोजन स्वीकार नहीं करता है। अत्यन्त निकट के प्रियजन जब भांति-भांति समझाते हैं, मान-मनुहार करते हैं तो अनन्त उपेक्षा पूर्ण ढंग से अपनी शर्तों पर थोड़ा-बहुत ग्रहण कर लेता है, उसमें भी यदि भोजन करते हुए बीच में कुछ भी व्यवधान आ जाये तो फिर अलिप्त हो जाता है। - अन्तर्द्वन्द/34 -
SR No.002294
Book TitleAantardwand
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParmatmaprakash Bharilla
PublisherHukamchand Bharilla Charitable Trust
Publication Year2011
Total Pages52
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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